जूथिका राय के बहाने गुलाबी-नगर का सुनहरा सफ़र: दूसरा भाग।
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने जयपुर-यात्रा का ब्यौरा दिया था। इसके बाद पंद्रह-बीस दिन बीत गए और जयपुर की यादों का अगला सिलसिला लिख ना सकी।
सुबह पत्रकार-वार्ता और जूथिका जी से 'सुर-यात्रा' की अनौपचारिक मुलाक़ात संपन्न हुई। और हम होटेल वापस आ गए। मुंबई से निकलने से पहले ही जयपुर के संजय कौशिक ने फेसबुक के ज़रिए यूनुस जी से मिलने का समय तय कर रखा था। जयपुर में एक 'एफ.एम. रेडियो फैन्स क्लब' है। जिसके कर्ता-धर्ता हैं संजय। क्लब के कई लोग हम दोनों से मिलना चाहते थे। दरअसल पत्रकार-वार्ता से लौटने के बाद जादू जी और मैं तो बुरी तरह थक गए थे। इसलिए मैं जाने में ज़रा आनाकानी कर रही थी। लेकिन संजय जी के इसरार पर आखिरकार जाना ही पड़ा।
लेकिन वहां पहुंचकर बड़ा अच्छा लगा। ये लगा कि अगर नहीं आते तो बहुत सारे लोगों की आत्मीयता से वंचित रह जाते। क्लब के तकरीबन पैंतीस-चालीस लोग एक रेस्त्रां में एकत्रित होकर इंतज़ार कर रहे थे। सबको ये जिज्ञासा थी कि रेडियो पर जो आवाज़ें वो बरसों से सुन रहे हैं, उनके चेहरे कैसे होंगे। दरअसल रेडियो-उदघोषक का पेशा ऐसा है कि जिसमें सभी सुनने वालों की जिज्ञासा रहती है...हमारे जीवन के बारे। हमारी शख्सियत के बारे में। वहां मौजूद लोगों ने बड़ी आत्मीयता और मासूमियत के साथ बताया कि उन्होंने अपने मन में हमारी छबि कैसी बना रखी थी। मेरे बारे में सोच रखा था कि एक लंबी-मोटी-बड़ी बिंदी वाली बुजुर्ग महिला साड़ी पहनकर सामने आयेंगी। और यूनुस जी के बारे में सोच रखा था कि वो बुजुर्ग और बहुत हट्टे-कट्टे होंगे। ज़ाहिर है कि सभी को हमें देखकर हैरत हुई। और कुछ महिलाओं ने हंस-हंस कर बड़े प्यार से अपने मन की ये बात बता भी दी।
यहां हम दोनों के साथ जादू जी का भी स्वागत-सत्कार हुआ और सबको जादू जी से मिलकर बड़ा मज़ा आया। जादू जी ने वहां बिस्किट कुतर-कुतर कर ख़ूब गिराए।
दिलचस्प बात ये है कि वहां कई लोगों की ऑटोग्राफ-डायरी जमा कर दी गई थी। ऊपर की तस्वीर में हम दोनों कोई एक्ज़ाम नहीं दे रहे बल्कि सबको ऑटोग्राफ़ दे रहे हैं।
कई लोगों की जिज्ञासा थी कि मैं रेडियो पर वापस कब लौट रही हूं। इसके अलावा हमारे कार्यक्रमों और जीवन से संबंधित कई-कई बातें पूछी गयीं। बड़ा अच्छा लगा। सचमुच बड़ा ही आत्मीय है ये एफ.एम.क्लब। जब भी राजस्थान जाती हूं, तो हर बार बड़ी आत्मीयता मिलती है। इसके पहले जोधपुर, जैसलमेर और रामगढ़ की यात्राएं भी बड़ी सुखद और आत्मीय रही हैं।
अरे हां..ये तो बताना भूल ही गयी कि राजस्थान की परंपरा के मुताबिक़ यूनुस जी को पगड़ी पहनाई गयी। जब हम होटेल लौटे तो वो पगड़ी जादू जी ने पहन ली।
शाम को जूथिका रॉय के सम्मान और गायन का कार्यक्रम था। जादू जी को सुलाना ज़रूरी था। पर वो तो पूरी मस्ती में थे। उन्होंने होटेल में खूब धमाचौकड़ी मचाई। फिर सो गए। जब उठे तो उन्हें फौरन तैयार कर दिया गया। उसके बाद हम गए जूथिका जी के पास। जो पास के ही कमरे में थीं। जादू जी जूथिका जी की गोद में गए तो रोने लगे। ख़ैर इसके बाद जब हॉल में पहुंचे तो जादू जी को एकदम खुली-खुली जगह मिली और उनका दौड़ना शुरू हो गया। वो हर बार भागकर मंच पर पहुंचना चाहते थे, जहां यूनुस जी कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे।
कार्यक्रम थोड़ी देर से शुरू हुआ। लेकिन पूरे रंग में था। जूथिका जी के गाए कुछ गानों की प्रस्तुति जयपुर की एक होनहार गायिका ने की। उसके बाद मंच पर यूनुस जी को जूथिका रॉय का इंटरव्यू लेना था। इस दौरान जूथिका जी ने अपने जीवन से जुड़ी बडी रोचक बातें बताईं। जैसे गांधी जी से उनकी मुलाक़ात कैसे हुई। कैसे उनके रिकॉर्ड निकलने शुरू हुए। फिल्मों में उन्होंने क्यों ज्यादा नहीं गाया। उन्होंने विवाह क्यों नहीं किया। पंद्रह अगस्त 1947 को जब आकाशवाणी से गाने का उन्हें मौक़ा मिला तो पंडित नेहरू ने उन्हें लगातार गाते रहने को कहा था। वो घटना भी सुनाई जूथिका जी ने। और कुछ गाने भी सुनाए।
इसके बाद बाक़ायदा जूथिका जी के गायन का कार्यक्रम हुआ। हैरत की बात ये है कि जीवन के नौंवें दशक में पहुंचने के बाद भी उनके भीतर इतनी ऊर्जा और गले में इतने सुर मौजूद हैं कि वो देर तक गाती रहें। श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे। सुर-यात्रा ने जूथिका जी को ना केवल सम्मान दिया बल्कि जीवन के इस मोड़ पर उन्हें एक बड़ी सम्मान-राशि भी प्रदान की।
फिर सुर-यात्रियों से मिलना-जुलना और तस्वीरों का सिलसिला चलता रहा।
जयपुर के एक अज़ीज़ भाई ने बड़ी आत्मीयता से मेरे लिए लाख की चूडियां बनाई थीं। जो उन्होंने मुझे मंच पर ही भेंट कीं। बड़ा अच्छा लगा। लाख की चूडियां सचमुच 'लाख' की ही होती हैं। अगले दिन सुबह-सुबह हम अजमेर रवाना हो गए। ख्वाजा के दरबार में जाकर बड़ा सुकून मिला। मैं और 'जादू' पहली बार वहां गये थे।
पूरी यात्रा में जादू जी ने बड़ा सहयोग किया। बस लौटते वक्त जब विमान मुंबई के आकाश में था तो पता नहीं क्या हुआ कि जादू जी पिनक गए। और खूब रोए। एयरहोस्टेसेज़ उन्हें चुप कराने के लिए सारे जतन किये, पर जादू जी चुप नहीं हुए। जब एयरपोर्ट पर पहुंचे तो मेरी गोद से उतरकर सरपट दौड़ने लगे। सभी सहयात्रियों ने, खासकर युवाओं के एक दल ने जादू जी के बड़े मज़े लिए। और पूछा कि फ्लाइट में उन्हें क्या हो गया था।
बहरहाल...एक शानदार यात्रा की यादें लेकर हम मुंबई लौट आए। सुर-यात्रा के लिए की गई ये यात्रा वाक़ई यादगार और सुरीली साबित हुई।