नैहर और ससुराल की स्मृतियां
लेकिन फिर भी ना जाने क्या है बचपन वाले उस शहर में कि बार बार अपनी तरफ खींचता है वो शहर। गंगा मैया में प्रदूषण लाख घुल-मिल गया हो, लेकिन उसने अपनी पवित्रता आज भी कायम रखी है। इस बार जब इलाहाबाद गए, तो मन आकुल था गंगा-जमना और सरस्वती से मिलने को। इन तीनों बहनों के जल-स्पर्श से मन प्रसन्नता से लबालब भर गया।
ढलती शाम में जब नौका-विहार किया तो आसमान और जमना के जल के बीच गोलाई में अठखेलियां करता सूरज ज़ेहन में बस गया। डूबते सूरज के साथ यमुना के पानी में जैसे किसी ने नारंगी रंग घोल दिया हो। जमुना पर बने नए ब्रिज की सैर की कशिश बार-बार बुलाती रही। बड़ा ही भला लगता है वहां बैठना।
लोकनाथ की मलाईदार लस्सी में अब भी वही मिठास है। वहां की दही-जलेबी, खस्ता दम-आलू, समोसे और चाट देखकर अब भी मुंह में पानी आ जाता है। आनंद भवन लोगों के लिए अभी भी आकर्षण का केंद्र है। आनंद भवन से जुड़ी एक सड़क इलाहाबाद विश्व-विद्यालय की ओर जाती है और अभी भी वैसे ही गुले-गुलज़ार है। अभी भी ठिए के सामने खड़े होकर लड़कियां चुरमुरा खाती नज़र आईं।
काफी बदल गया है इलाहाबाद। प्रगति के बहुत सारे सोपान तय किये हैं इलाहाबाद ने। लेकिन उस शहर का मिज़ाज नहीं बदला। लोगों के रहन-सहन की तासीर नहीं बदली। लोगों का अपनापन अब भी कायम है। गली के मोड़ पर खड़े काका, ताऊ या दादा या भैया जैसे आत्मीय आपको नसीहत की घुट्टी पिलाने के लिए आज भी तत्पर मिल जाएंगे। एक सवाल के जवाब में दस बातों की व्याख्या ज़रूर कर डालेंगे।
पड़ोसी के घर की रसोई में क्या पक रहा है, ये सहज जिज्ञासा आज भी कायम है। भागमभाग के इस युग में भी दफ्तर या अपने गंतव्य को जाते हुए लोग आज भी पान की दुकान से बीड़ा या दोहरा मुंह में भरकर ही आगे बढ़ते हैं। मालवीय नगर की संकरी गलियों में भी लोग अपनी कार ज़रूर ले जाएंगे। भले ही उसकी वजह से उन्हें ट्रैफिक जाम में कई घंटे बरबाद करने पड़ जाएं। अनियंत्रित, बेतरतीब ट्रैफिक में फंसे लोग....ना तो ट्रैफिक रूल से शिकायत करते हैं ना ही उनका पालन करते हैं। लेकिन वे अपने जीवन से बेहद संतुष्ट हैं।
लोकनाथ के ढाल पर भारती भवन लाइब्रेरी आज भी पुराने रंग रोगन में मौजूद है। उसके इर्द गिर्द हरी नमकीन, समोसे वालों की दुकान और तरह तरह के मसालों की गंध बिखरी है आज भी। अब भी हम वहीं से दम-आलू और कचौड़ी के मसाले और हींग वग़ैरह ख़रीदकर मुंबई की अपनी रसोई तक ले आते हैं। हालांकि सिविल लाइंस के इलाक़े में मॉल भी बन गए हैं, बड़े बड़े शोरूम खुल गये हैं। पहनावे पोशाक में भी खूब फर्क आ गया है लेकिन नहीं बदली है वहां की आत्मीयता। नहीं बदला है वहां का सुकून। आज भी लोग छत पर बैठकर मूंगफली और अमरूद खाते हैं। आज भी बेटी जब मायके आती है तो अड़ोसी-पड़ोसी छत से झांकते हैं और फिर मिलने चले आते हैं। फुरसत से खूब बतियाते हैं। सवालों की झड़ी लगा देते हैं। बेहद निजी बातें भी वो इतने अधिकार से पूछते हैं कि जिनके बारे में आपने कभी खुद से भी गुफ्तगू ना की हो।
सुकून, प्रेम और स्नेह की त्रिवेणी आज भी बहती है इलाहाबाद में। शायद इसलिए अपनी प्रिय मायानगरी, कर्म की नगरी में आकर भी मन का एक सिरा वहीं रह जाता है.... जहां भाई-बहनों के साथ घंटों बैठकें होती हैं। तमाम व्यस्तता और आधुनिकता के बावजूद आज भी, लाख मना करने पर भी भाभी अपने हाथों से पैरों में महावर लगाकर प्यार के रंग से तन-मन भर देती हैं। मायके और ससुराल की यादों से भरा है मन का पिटारा.... जिसमें छलक रहे हैं खुशियों के रंग।
मायका गंगा-जमना किनारे है तो ससुराल नर्मदा तीरे। नर्मदा मैया का सान्निध्य कम मिला, लेकिन जब गये भेड़ाघाट तो आसमान की ओर उड़ते पानी के छोटे छोटे कणों को देखते ही रह गये। उपमा से परे..... वर्णन से परे.... फेनिल झाग वाले पानी से... उड़ती बूंदों से इस कदर भीगे कि वो नमी अभी भी महसूस हो रही है मन के आंगन में। इस बार मायके और ससुराल का सफर अदभुत और यादगार हो गया।
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