Tuesday, June 8, 2010

जूथिका राय के बहाने गुलाबी-नगर का सुनहरा सफ़र: दूसरा भाग।


अपनी पिछली पोस्‍ट में मैंने जयपुर-यात्रा का ब्‍यौरा दिया था। इसके बाद पंद्रह-बीस दिन बीत गए और जयपुर की यादों का अगला सिलसिला लिख ना सकी।

सुबह पत्रकार-वार्ता और जूथिका जी से 'सुर-यात्रा' की अनौपचारिक मुलाक़ात संपन्‍न हुई। और हम होटेल वापस आ गए। मुंबई से निकलने से पहले ही जयपुर के संजय कौशिक ने फेसबुक के ज‍़रिए यूनुस जी से मिलने का समय तय कर रखा था। जयपुर में एक 'एफ.एम. रेडियो फैन्‍स क्‍लब' है। जिसके कर्ता-धर्ता हैं संजय। क्‍लब के कई लोग हम दोनों से मिलना चाहते थे। दरअसल पत्रकार-वार्ता से लौटने के बाद जादू जी और मैं तो बुरी तरह थक गए थे। इसलिए मैं जाने में ज़रा आनाकानी कर रही थी। लेकिन संजय जी के इसरार पर आखिरकार जाना ही पड़ा।

लेकिन वहां पहुंचकर बड़ा अच्‍छा लगा। ये लगा कि अगर नहीं आते तो बहुत सारे लोगों की आत्‍मीयता से वंचित रह जाते। क्‍लब के तकरीबन पैंतीस-चालीस लोग एक रेस्‍त्रां में एकत्रित होकर इंतज़ार कर रहे थे। सबको ये जिज्ञासा थी कि रेडियो पर जो आवाज़ें वो बरसों से सुन रहे हैं, उनके चेहरे कैसे होंगे। दरअसल रेडियो-उदघोषक का पेशा ऐसा है कि जिसमें सभी सुनने वालों की जिज्ञासा रहती है...हमारे जीवन के बारे। हमारी शख्सियत के बारे में। वहां मौजूद लोगों ने बड़ी आत्‍मीयता और मासूमियत के साथ बताया कि उन्‍होंने अपने मन में हमारी छबि कैसी बना रखी थी। मेरे बारे में सोच रखा था कि एक लंबी-मोटी-बड़ी बिंदी वाली बुजुर्ग महिला साड़ी पहनकर सामने आयेंगी। और यूनुस जी के बारे में सोच रखा था कि वो बुजुर्ग और बहुत हट्टे-कट्टे होंगे। ज़ाहिर है कि सभी को हमें देखकर हैरत हुई। और कुछ महिलाओं ने हंस-हंस कर बड़े प्‍यार से अपने मन की ये बात बता भी दी।

यहां हम दोनों के साथ जादू जी का भी स्‍वागत-सत्‍कार हुआ और सबको जादू जी से मिलकर बड़ा मज़ा आया। जादू जी ने वहां बिस्किट कुतर-कुतर कर ख़ूब गिराए।
दिलचस्‍प बात ये है कि वहां कई लोगों की ऑटोग्राफ-डायरी जमा कर दी गई थी। ऊपर की तस्‍वीर में हम दोनों कोई एक्‍ज़ाम नहीं दे रहे बल्कि सबको ऑटोग्राफ़ दे रहे हैं। 

कई लोगों की जिज्ञासा थी कि मैं रेडियो पर वापस कब लौट रही हूं। इसके अलावा हमारे कार्यक्रमों और जीवन से संबंधित कई-कई बातें पूछी गयीं। बड़ा अच्‍छा लगा। सचमुच बड़ा ही आत्‍मीय है ये एफ.एम.क्‍लब। जब भी राजस्‍थान जाती हूं, तो हर बार बड़ी आत्‍मीयता मिलती है। इसके पहले जोधपुर, जैसलमेर और रामगढ़ की यात्राएं भी बड़ी सुखद और आत्‍मीय रही हैं।

अरे हां..ये तो बताना भूल ही गयी कि राजस्‍थान की परंपरा के मुताबिक़ यूनुस जी को पगड़ी पहनाई गयी। जब हम होटेल लौटे तो वो पगड़ी जादू जी ने पहन ली।
IMG_6494-1शाम को जूथिका रॉय के सम्‍मान और गायन का कार्यक्रम था। जादू जी को सुलाना ज़रूरी था। पर वो तो पूरी मस्‍ती में थे। उन्‍होंने होटेल में खूब धमाचौकड़ी मचाई। फिर सो गए। जब उठे तो उन्‍हें फौरन तैयार कर दिया गया। उसके बाद हम गए जूथिका जी के पास। जो पास के ही कमरे में थीं। IMG_6489-1जादू जी जूथिका जी की गोद में गए तो रोने लगे। ख़ैर इसके बाद जब हॉल में पहुंचे तो जादू जी को एकदम खुली-खुली जगह मिली और उनका दौड़ना शुरू हो गया। वो हर बार भागकर मंच पर पहुंचना चाहते थे, जहां यूनुस जी कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे।
IMG_6491-1 कार्यक्रम थोड़ी देर से शुरू हुआ। लेकिन पूरे रंग में था। जूथिका जी के गाए कुछ गानों की प्रस्‍तुति जयपुर की एक होनहार गायिका ने की। उसके बाद मंच पर यूनुस जी को जूथिका रॉय का इंटरव्‍यू लेना था। इस दौरान जूथिका जी ने अपने जीवन से जुड़ी बडी रोचक बातें बताईं। जैसे गांधी जी से उनकी मुलाक़ात कैसे हुई। कैसे उनके रिकॉर्ड निकलने शुरू हुए। फिल्‍मों में उन्‍होंने क्‍यों ज्‍यादा नहीं गाया। उन्‍होंने विवाह क्‍यों नहीं किया। पंद्रह अगस्‍त 1947 को जब आकाशवाणी से गाने का उन्‍हें मौक़ा मिला तो पंडित नेहरू ने उन्‍हें लगातार गाते रहने को कहा था। वो घटना भी सुनाई जूथिका जी ने। और कुछ गाने भी सुनाए।

thumbs_cimg1225-1 इसके बाद बाक़ायदा जूथिका जी के गायन का कार्यक्रम हुआ। हैरत की बात ये है कि जीवन के नौंवें दशक में पहुंचने के बाद भी उनके भीतर इतनी ऊर्जा और गले में इतने सुर मौजूद हैं कि वो देर तक गाती रहें। श्रोता मंत्रमुग्‍ध होकर सुनते रहे। सुर-यात्रा ने जूथिका जी को ना केवल सम्‍मान दिया बल्कि जीवन के इस मोड़ पर उन्‍हें एक बड़ी सम्‍मान-राशि भी प्रदान की।

फिर सुर-यात्रियों से मिलना-जुलना और तस्‍वीरों का सिलसिला चलता रहा।
P41800651-1 जयपुर के एक अज़ीज़ भाई ने बड़ी आत्‍मीयता से मेरे लिए लाख की चूडियां बनाई थीं। जो उन्‍होंने मुझे मंच पर ही भेंट कीं। बड़ा अच्‍छा लगा। लाख की चूडियां सचमुच 'लाख' की ही होती हैं। cimg1246-1अगले दिन सुबह-सुबह हम अजमेर रवाना हो गए। ख्‍वाजा के दरबार में जाकर बड़ा सुकून मिला। मैं और 'जादू' पहली बार वहां गये थे।  

पूरी यात्रा में जादू जी ने बड़ा सहयोग किया। बस लौटते वक्‍त जब विमान मुंबई के आकाश में था तो पता नहीं क्‍या हुआ कि जादू जी पिनक गए। और खूब रोए। एयरहोस्‍टेसेज़ उन्‍हें चुप कराने के लिए सारे जतन किये, पर जादू जी चुप नहीं हुए। जब एयरपोर्ट पर पहुंचे तो मेरी गोद से उतरकर सरपट दौड़ने लगे। सभी सहयात्रियों ने, खासकर युवाओं के एक दल ने जादू जी के बड़े मज़े लिए। और पूछा कि फ्लाइट में उन्‍हें क्‍या हो गया था।

बहरहाल...एक शानदार यात्रा की यादें लेकर हम मुंबई लौट आए। सुर-यात्रा के लिए की गई ये यात्रा वाक़ई यादगार और सुरीली साबित हुई।

Sunday, May 16, 2010

जूथिका राय के बहाने गुलाबी-नगर का सुनहरा सफर।


पिछले दिनों यूनुस जी को जूथिका रॉय के 91 वें जन्‍मदिन पर आयोजित कार्यक्रम के लिए जयपुर जाना था। प्रस्‍ताव सपरिवार आने का था। मैं उहापोह में थी और अंतिम दिन तक उहापोह में ही रही। पता नहीं, 'जादू' कैसा 'रिस्‍पॉन्‍ड' करेंगे। ख़ैर तय हुआ कि हम सभी जायेंगे।  

'जादू' जी ने हमेशा की तरह यात्रा की शुरूआत बहुत बढिया की। एयरपोर्ट पर हमेशा की तरह उन्‍हें भूख लगी, जिसकी तैयारी मैं करके ही निकली थी।
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एयरपोर्ट पर ही एक लैपटॉप वाले अंकल से दोस्ती कर ली। फिर किसी आंटी को देखकर मुस्‍कुरा दिए। दोस्तियां होती रहीं। उड़ान के शुरूआती पौना घंटे तक 'जादू' जी की अदाएं कायम रहीं। विमान में भी लोगों से दोस्‍ती की। खींचा-तानी की। 'आइल' में पैदल टहले।
radiosakhiखिड़की से झांके। सब किया। लेकिन 'लैन्‍ड' होने से थोड़ा पहले ही उनका मूड ख़राब हो गया। जो गला फाड़कर रोना शुरू किया कि 'प्‍लेन' में हंगामा मच गया। अगल-बगल, आगे पीछे वाले सभी लोगों ने उन्‍हें चुप कराने की तरकीबें लगाईं। किसी ने कहा कान में 'कॉटन' लगा दिया जाए। जो कि पहले से ही लगा था। किसी ने 'जूस' ऑफर किया। किसी ने 'ब्रेड-स्टिक' दिया। पर जादू जी शांत नहीं होने वाले थे, तो नहीं हुए। आखिरकार एयरहोस्‍टेस के केबिन में जाकर उनकी 'फीडिंग' करनी पड़ी। तब जाकर महोदय शांत हुए।

बहरहाल, जयपुर एयरपोर्ट पहुंचने के बाद जादू फिर अपने रंग में आ गए। गोद से उतरके मटक-मटक के, ठुमक-ठुमक के गिरते-पड़ते चलने की कोशिश करने लगे। अनजान लोगों से दोस्‍ती की। ठहरने का इंतज़ाम सर्विस्ड-अपार्टमेन्‍ट शैली के होटेल में था। जादूजी को खेलने के लिए खुली-खुली जगह चाहिए। इनके आने के बाद मुंबई के अपने घर में से हमने तमाम ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें हटा दी हैं। ताकि इनके लिए पर्याप्‍त 'स्‍पेस' रहे। जयपुर के इस होटेल में जादू ने खूब मज़े किए। खुली जगह मिली थी खेलने के लिए। ख़ूब हॉकी खेली। क्रिकेट खेला। दौड़े-कूदे।

बहरहाल...मैं 'पिंक-सिटी' पहली ही बार गई थी। मुंबई की नम-गर्मी के बाद वहां की सूखी झुलसा देने वाली गर्मी मेरे लिए ही असह्य हो रही थी, जादू के लिए तो ये जीवन की पहली गरमी थी। ए.सी.गाड़ी में भी जादू हर दस मिनिट में पानी पी रहे थे। जयपुर के जिन हिस्‍सों से हम होकर गुज़रे,  वो नया बसा इलाक़ा रहा होगा। खुली-खुली चौड़ी-चौड़ी सड़कें, कम ट्रैफिक और कम भीड़। ( शायद मुंबई की भीड़ के आगे सब कुछ कम लग रहा था) जूथिका रॉय का मुख्‍य-कार्यक्रम शाम को था। रविवार की सुबह गोष्‍ठी थी, जिसमें चुनिंदा लोग एकत्रित हुए थे।
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ये जानकर अच्‍छा लगा कि राजस्‍थान के अलग-अलग शहरों से जूथिका जी के दीवाने और इंदौर से सुमन जी भी  यहां आए थे। बड़ा-सा कॉन्‍फ्रेन्‍स-हॉल...और जयपुर की गरम-गरम हवाएं। सबका परिचय हुआ। जूथिका राय के बारे में सबने अपने-अपने विचार रखे। यहीं मुलाक़ात हुई जाने-माने चिट्ठाकार और आलोचक डॉ.दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी से। उन्‍हें जादू से मिलकर बड़ा अच्‍छा लगा।
यूनुस जी तो जूथिका जी से पहले भी मिल चुके थे। लेकिन मेरी ये पहली मुलाक़ात थी। और जादू की भी।

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यहां हमें 'सुर-यात्रा' की ओर से जूथिका जी के सभी गीतों का अनमोल संग्रह भी भेंट किया गया, एक डी.वी.डी. के रूप में। जयपुर के संगीत-रसिकों का समूह 'सुर-यात्रा' वाक़ई बड़ा आत्‍मीय है। मुरलीधर सोनी, पवन झा, अग्रवाल जी, अरूण मुद्गल, राजेंद्र बोड़ा और उनका परिवार, अज़ीज़ भाई और बाक़ी तमाम लोग जिनके नाम शायद मैं भूल रही हूं.....हमारा ख़ूब ख्‍याल रख रहे थे। इस गोष्‍ठी से ये भी लगा कि भले ही आज नए संगीत की तथा-कथित धूम हो...लेकिन पुराना संगीत सचमुच कालजयी है और इसके दीवाने सारी दुनिया में फैले हैं।

जूथिका जी को देखकर लगा नहीं कि नब्‍बे वर्ष की हैं। सफ़ेद शफ्फाफ़ साड़ी, सौम्‍य चेहरा, मासूम मुस्‍कान और बेहद संकोची और सच्‍चा व्‍यक्तित्‍व। वे सबसे बड़ी आत्‍मीयता से मिल रही थीं। तीन घंटे तक बैठी वे सबकी बातें ध्‍यान से सुनती रहीं। और सवालों के जवाब देती रहीं। उनकी याददाश्‍त को 'फोटोग्राफिक मेमरी' कहना ग़लत नहीं होगा। दो बातों का जिक्र करना चाहूंगी। एक तो ये कि जब जाने-माने गीतकार डॉ.हरिराम आचार्य बोले, तो इत्‍ता अच्‍छा बोले कि लगा, वे बस बोलते ही रहें। उन्‍होंने बताया कि जूथिका शब्‍द असल में संस्‍कृत के शब्‍द 'यूथिका' से बना है। जिसका मतलब होता है 'जूही' । फिर जब दुर्गाप्रसाद जी बोले तो उन्‍होंने जूथिका जी के संदर्भ में 'तुमुल कोलाहल कलह में मैं विरह की बात रे मन' का जिक्र किया। जो बहुत अच्‍छा लगा। उनकी ये बात भी अच्‍छी लगी कि जूथिका जी को देखकर महादेवी वर्मा की याद आ जाती है। सचमुच मुझे भी ऐसा ही लगता रहा है।

यूनुस जी की एक बात अच्‍छी लगी कि जूथिका जी की आवाज़ आज के शोर भरे युग में 'निर्मल-आनंद' प्रदान करती है। जूथिका जी ने बताया कि किस तरह से गांधी जी से उनकी मुलाक़ात हुई थी। उन्‍होंने फिल्‍मों में ज्यादा क्‍यों नहीं गाया। पंडित नेहरू से उनकी मुलाकात का भी जिक्र निकला। सचमुच पुराने लोगों को सुनना उस पुराने युग में लौट जाने जैसा होता है, जिसे हमने नहीं देखा।

इस पूरी गोष्‍ठी के दौरान जादू भेंट किये गए पुष्‍प-गुच्‍छ खेलते रहे। और लगातार अपनी टिप्‍पणियां देते रहे। जैसे--'द....हा', 'ऐ', 'ताताताताता', 'ददान्‍नना', 'अन्‍ना डिड्डा' वग़ैरह। जब ज्‍यादा बोरियत लगी तो एकाध बार ज़ोर से चिल्‍लाए भी। इस दौरान उन्‍होंने अपना नाश्‍ता भी किया।

radiosakhiरविवार की उस शाम जूथिका जी का सम्‍मान था। जिसकी बातें कल के अंक में करूंगी।

Friday, February 26, 2010

ममता के 'जादू' की पहली सालगिरह


लगता है बस अभी की ही बात है । मैं बोरीवली के एक नर्सिंग-होम में 'इनके' साथ एन.एस.टी. करवाने गई थी । पिछले नौ महीने बेसब्री-बेचैनी-घबराहट-डर-आशंका-रोमांच में बीते थे । और अब इंतज़ार था नौ मार्च का । घर से निकली तो पता नहीं था कि 'जिन्‍हें' नौ मार्च को आना था--वो अगले ही दिन आने वाले हैं । डॉक्‍टर हिंदळेकर के नर्सिंग-होम का सौ बरस से भी ज्‍यादा का इतिहास रहा है । इसलिए उन पर हमेशा आंख बंद करके विश्‍वास किया जा सकता
है । जूनियर डॉक्‍टर ने कहा 'एन.एस.टी.' ठीक नहीं आ रहा
है । फ़ौरन अपने डॉक्‍टर के पास जाईये ।

हम तो सोच रहे थे कि अभी तकरीबन पंद्रह दिन बाक़ी हैं । तैयारियां हो ही जायेंगी । भाभी वग़ैरह भी आ जायेंगी । फिर अपने सास-ससुर का आना भी उन्‍हीं तारीख़ों के मुताबिक़ तय था । लेकिन यहां तो सारा मामला आज और कल वाला हो गया था । फ़ौरन घर आए और जैसे-तैसे 'इन्‍होंने' बैग तैयार किया । मुझे पता भी नहीं कि क्‍या रखा और क्‍या छोड़ा । तुरंत 'वेस्‍टर्न एक्‍सप्रेस हाइवे' पर 'शूं-शां' तरीक़े से ड्राइव करते हुए पहुंचे हॉस्पिटल । डॉक्‍टर ने जांच की और कहा कि आपका नन्‍हा-मुन्‍ना बाक़ायदा 'मैच्‍योर' है । पर  नन्‍हे-मुन्‍ने ने अपनी गर्दन में 'कॉर्ड'  लपेट ली है । हालांकि आप चाहें तो दस दिन इंतज़ार किया जा सकता है । फै़सला आपको करना है । जो कहें--सो कर दिया जाए ।

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              जादू के आने से पहले अस्‍पताल में 


सोचती थी कि किसी पंडित-ज्‍योतिषी से तारीख़ और ग्रह-नक्षत्र पूछूंगी । उचित समय का निर्धारण किया जायेगा । और तब 'महाशय' किलकारियां भरेंगे । लेकिन
'जिन्‍हें' आना था उन्‍हें तो जैसे शुरूआत से ही इस 'टिटिम्‍मे' पर भरोसा नहीं था और 'आने' की बड़ी बेक़रारी भी थी । सच बताऊं--रात के नौ बजे उसी दिन अस्‍पताल में जो 'मूमेन्‍ट' किया कि लगा सब कुछ ठीक है । घर चला जाए । डॉक्‍टर भी हंसने लगीं--कि आप लोग नाहक ही टेन्‍शन ले रहे थे ।

पर 'आने वाले' ने तो अपने आगमन का फ़ैसला कर ही लिया था ।  आज ही की तारीख़ थी और जिस समय मैं ये शब्‍द लिख रही हूं--ठीक एक साल पहले मैं उस समय ऑपरेशन थियेटर में 'सर्जन' की तैयारियां देख रही थी और बहुत टेन्‍शन में थी । डर था माहौल का--जहां चारों तरफ मेडिकल टीम  खड़ी थी । हलचल मची थी । दिमाग़ में तमाम तरह की बातें आ रही थीं । जब गर्भवती थी तो बूढ़-बुजुर्गों ने तरह-तरह के नुस्खे बताए थे । किसी ने कहा था कि नारियल और सेब खाने से बेटा गोरा होगा । किसी ने कहा था संगीत सुनो । किसी ने कहा था खूब अच्‍छी-अच्‍छी बातें सोचना । किसी ने कहा था बेटे के पैदा होते ही कान में 'ऊं' का जाप कर देना । जीभ पर सोने की सलाई से 'ऊं' लिख देना तो बेटा 'होनहार' होगा । किसी ने 'अज़ान' पढ़ने की बात कही । ये सब बातें मैं ऑपरेशन से पहले याद कर रही थी ।

बारह बजकर आठ मिनिट के आसपास जब डॉक्‍टरों ने 'नन्‍हे-मुन्‍ने' को बाहर लाने की कोशिश की--तो उसने ज़ोर से एक 'किक' मारा और डॉक्‍टर बोलीं--'ओह माय गॉड' । उसके बाद हंसी की एक लहर थियेटर में दौड़ गई । इसके दो ही मिनिट बाद मेरे लाड़ले की रोने की आवाज़ गूंज उठी । मैंने डॉक्‍टर से पूछा--'ये मेरा बच्‍चा रो रहा है' । और डॉक्‍टर ने फौरन मेरी बांहों में उसे रख दिया । भाव-विह्वलता में आंखों से झर-झर आंसूं बहने लगे । मैं मुग्‍ध होकर उसे चूमने
लगी । मुंह से निकला--'ओह मेरा प्‍यारा बच्‍चा' । वो सारी बातें, वो सारी सलाहें भूल गयी,  उस समय मेरा कोई धर्म नहीं था । मेरा धर्म था ममत्‍व, मातृत्‍व से सराबोर थी मैं । स्‍नेह से विह्वल थी मैं । अलौकिक-क्षण था ये ।

jaadoo first day fotos_004 आज का दिन इसलिए भी मेरे लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि '‍बेटे' के आने के बाद बहुत लोगों से मेरा अभिन्‍न  जुड़ाव हुआ । 'जादू' ने मुझे कई लोगों से जोड़ा । और हां, मां बनने के बाद मेरी सारी जिंदगी बदल गयी । पहले नींद मुझे बड़े प्रिय थी । सात से आठ घंटे की नींद जि़द के तहत लेती ही थी । पर 'जादू' के आने के बाद डेढ़ से चार घंटे की भी नींद मिल जाए तो काफी है । दिन भर उसके काम में बिज़ी रहना, अपने लिए ज़रा भी वक्‍त नहीं निकाल पाना.....ये सब परेशान नहीं करता.....सुख देता है  । अब तो 'जादू' के साथ खेलते हुए दिन ऐसे बीत रहे हैं कि सुबह कब होती है, शाम कब.....पता ही नहीं चलता । जब मैं सोचती हूं कि चार पांच महीने बाद दफ्तर ज्‍वाइन करना है तो उदास हो जाती हूं और फिर इसे गोद में लेकर बहुत प्यार करती हूं । कहती हूं कि मेरा तो स्‍टूडियो में मन ही नहीं लग सकेगा । दिन भर कैसे रहूंगी तेरे बिना । सचमुच इतनी मनपसंद, चुनौतीपूर्ण
नौकरी होने के बावजूद मुझे स्‍टूडियो नहीं पुकारता । लोग कहते हैं कि कित्‍ते दिन हो गए दफ्तर छोड़े । आ जाओ वापस । अच्‍छा लगेगा । वरना मोनोटोनी आ जाएगी । लेकिन मुझे लगता है कि एक मां बनने के बाद एक महिला के जीवन में ज़रा भी एकरसता नहीं रहती । हर दिन एक चुनौती होती है, हर दिन एक नया अहसास । हर दिन ममता का एक नया रोमांच होता है । 

IMG_5378 आज जब 'जादू' एक बरस का हो रहा है, उस पल को याद करके फिर से भाव-विह्वल हो रही हूं । मुझ लगता है कि मैं जो कहना चाहती थी कि कह पाई या नहीं । पर जितनी भी मांएं हैं वो मेरे लिखे और अलिखे को समझ जायेंगे । फिलहाल तो मैं 'जादू'  के लिए गुनगुना रही हूं----'ऐ चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा' ।

नन्‍हे जादू 'मम्‍मा' की तरफ़ से असंख्‍य शुभकामनाएं सालगिरह की ।