जूथिका राय के बहाने गुलाबी-नगर का सुनहरा सफर।
पिछले दिनों यूनुस जी को जूथिका रॉय के 91 वें जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम के लिए जयपुर जाना था। प्रस्ताव सपरिवार आने का था। मैं उहापोह में थी और अंतिम दिन तक उहापोह में ही रही। पता नहीं, 'जादू' कैसा 'रिस्पॉन्ड' करेंगे। ख़ैर तय हुआ कि हम सभी जायेंगे।
'जादू' जी ने हमेशा की तरह यात्रा की शुरूआत बहुत बढिया की। एयरपोर्ट पर हमेशा की तरह उन्हें भूख लगी, जिसकी तैयारी मैं करके ही निकली थी।
एयरपोर्ट पर ही एक लैपटॉप वाले अंकल से दोस्ती कर ली। फिर किसी आंटी को देखकर मुस्कुरा दिए। दोस्तियां होती रहीं। उड़ान के शुरूआती पौना घंटे तक 'जादू' जी की अदाएं कायम रहीं। विमान में भी लोगों से दोस्ती की। खींचा-तानी की। 'आइल' में पैदल टहले।
खिड़की से झांके। सब किया। लेकिन 'लैन्ड' होने से थोड़ा पहले ही उनका मूड ख़राब हो गया। जो गला फाड़कर रोना शुरू किया कि 'प्लेन' में हंगामा मच गया। अगल-बगल, आगे पीछे वाले सभी लोगों ने उन्हें चुप कराने की तरकीबें लगाईं। किसी ने कहा कान में 'कॉटन' लगा दिया जाए। जो कि पहले से ही लगा था। किसी ने 'जूस' ऑफर किया। किसी ने 'ब्रेड-स्टिक' दिया। पर जादू जी शांत नहीं होने वाले थे, तो नहीं हुए। आखिरकार एयरहोस्टेस के केबिन में जाकर उनकी 'फीडिंग' करनी पड़ी। तब जाकर महोदय शांत हुए।
बहरहाल, जयपुर एयरपोर्ट पहुंचने के बाद जादू फिर अपने रंग में आ गए। गोद से उतरके मटक-मटक के, ठुमक-ठुमक के गिरते-पड़ते चलने की कोशिश करने लगे। अनजान लोगों से दोस्ती की। ठहरने का इंतज़ाम सर्विस्ड-अपार्टमेन्ट शैली के होटेल में था। जादूजी को खेलने के लिए खुली-खुली जगह चाहिए। इनके आने के बाद मुंबई के अपने घर में से हमने तमाम ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें हटा दी हैं। ताकि इनके लिए पर्याप्त 'स्पेस' रहे। जयपुर के इस होटेल में जादू ने खूब मज़े किए। खुली जगह मिली थी खेलने के लिए। ख़ूब हॉकी खेली। क्रिकेट खेला। दौड़े-कूदे।
बहरहाल...मैं 'पिंक-सिटी' पहली ही बार गई थी। मुंबई की नम-गर्मी के बाद वहां की सूखी झुलसा देने वाली गर्मी मेरे लिए ही असह्य हो रही थी, जादू के लिए तो ये जीवन की पहली गरमी थी। ए.सी.गाड़ी में भी जादू हर दस मिनिट में पानी पी रहे थे। जयपुर के जिन हिस्सों से हम होकर गुज़रे, वो नया बसा इलाक़ा रहा होगा। खुली-खुली चौड़ी-चौड़ी सड़कें, कम ट्रैफिक और कम भीड़। ( शायद मुंबई की भीड़ के आगे सब कुछ कम लग रहा था) जूथिका रॉय का मुख्य-कार्यक्रम शाम को था। रविवार की सुबह गोष्ठी थी, जिसमें चुनिंदा लोग एकत्रित हुए थे।
ये जानकर अच्छा लगा कि राजस्थान के अलग-अलग शहरों से जूथिका जी के दीवाने और इंदौर से सुमन जी भी यहां आए थे। बड़ा-सा कॉन्फ्रेन्स-हॉल...और जयपुर की गरम-गरम हवाएं। सबका परिचय हुआ। जूथिका राय के बारे में सबने अपने-अपने विचार रखे। यहीं मुलाक़ात हुई जाने-माने चिट्ठाकार और आलोचक डॉ.दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी से। उन्हें जादू से मिलकर बड़ा अच्छा लगा। यूनुस जी तो जूथिका जी से पहले भी मिल चुके थे। लेकिन मेरी ये पहली मुलाक़ात थी। और जादू की भी।
यहां हमें 'सुर-यात्रा' की ओर से जूथिका जी के सभी गीतों का अनमोल संग्रह भी भेंट किया गया, एक डी.वी.डी. के रूप में। जयपुर के संगीत-रसिकों का समूह 'सुर-यात्रा' वाक़ई बड़ा आत्मीय है। मुरलीधर सोनी, पवन झा, अग्रवाल जी, अरूण मुद्गल, राजेंद्र बोड़ा और उनका परिवार, अज़ीज़ भाई और बाक़ी तमाम लोग जिनके नाम शायद मैं भूल रही हूं.....हमारा ख़ूब ख्याल रख रहे थे। इस गोष्ठी से ये भी लगा कि भले ही आज नए संगीत की तथा-कथित धूम हो...लेकिन पुराना संगीत सचमुच कालजयी है और इसके दीवाने सारी दुनिया में फैले हैं।
जूथिका जी को देखकर लगा नहीं कि नब्बे वर्ष की हैं। सफ़ेद शफ्फाफ़ साड़ी, सौम्य चेहरा, मासूम मुस्कान और बेहद संकोची और सच्चा व्यक्तित्व। वे सबसे बड़ी आत्मीयता से मिल रही थीं। तीन घंटे तक बैठी वे सबकी बातें ध्यान से सुनती रहीं। और सवालों के जवाब देती रहीं। उनकी याददाश्त को 'फोटोग्राफिक मेमरी' कहना ग़लत नहीं होगा। दो बातों का जिक्र करना चाहूंगी। एक तो ये कि जब जाने-माने गीतकार डॉ.हरिराम आचार्य बोले, तो इत्ता अच्छा बोले कि लगा, वे बस बोलते ही रहें। उन्होंने बताया कि जूथिका शब्द असल में संस्कृत के शब्द 'यूथिका' से बना है। जिसका मतलब होता है 'जूही' । फिर जब दुर्गाप्रसाद जी बोले तो उन्होंने जूथिका जी के संदर्भ में 'तुमुल कोलाहल कलह में मैं विरह की बात रे मन' का जिक्र किया। जो बहुत अच्छा लगा। उनकी ये बात भी अच्छी लगी कि जूथिका जी को देखकर महादेवी वर्मा की याद आ जाती है। सचमुच मुझे भी ऐसा ही लगता रहा है।
यूनुस जी की एक बात अच्छी लगी कि जूथिका जी की आवाज़ आज के शोर भरे युग में 'निर्मल-आनंद' प्रदान करती है। जूथिका जी ने बताया कि किस तरह से गांधी जी से उनकी मुलाक़ात हुई थी। उन्होंने फिल्मों में ज्यादा क्यों नहीं गाया। पंडित नेहरू से उनकी मुलाकात का भी जिक्र निकला। सचमुच पुराने लोगों को सुनना उस पुराने युग में लौट जाने जैसा होता है, जिसे हमने नहीं देखा।
इस पूरी गोष्ठी के दौरान जादू भेंट किये गए पुष्प-गुच्छ खेलते रहे। और लगातार अपनी टिप्पणियां देते रहे। जैसे--'द....हा', 'ऐ', 'ताताताताता', 'ददान्नना', 'अन्ना डिड्डा' वग़ैरह। जब ज्यादा बोरियत लगी तो एकाध बार ज़ोर से चिल्लाए भी। इस दौरान उन्होंने अपना नाश्ता भी किया।
रविवार की उस शाम जूथिका जी का सम्मान था। जिसकी बातें कल के अंक में करूंगी।