कहानी- जनरल टिकट
आज अचानक ठंड बढ़ गयी है। गुनगुनी, नरम धूप बदन को सहला रही है। दिव्या अपनी नोटबुक और किताब लेकर हॉस्टल का बरामदा पार करती हुई लॉन में आ गयी है। लॉन के किनारे-किनारे की घास अभी भी गीली है। क्यारियों में लगे फूलों और पौधों की पत्तियों पर ठहरी ओस की बूंदों पर पड़ती सूरज की किरणें मोती-सी चमक रही हैं। छुएं जैसे उड़ते हुए बादल सूरज को ढंक लेते हैं। छिपा-छिपी खेलती बदली और धूप उसे गुदगुदा रही है। मन भी धूप-छांही हो रहा है, घास पर जैसे मोरपंख बिछ गए हों और उसकी आंखें जगर-मगर कर रही हों।
उसे यकीन ही नहीं हो रहा है कि उसकी बनायी डॉक्यूमेन्ट्री एंटरटेन्मेन्ट चैनल पर अप्रूव हो गयी है। चुनौतियां बढ़ गयी हैं। कल जब मंच पर उद्भव सर ने सबके सामने हाथ मिलाकर उसे ‘कॉन्ग्रेट्स’ किया, तो कितना रोमांच हुआ था। मारे खुशी के जैसे पंख लगाकर वो उड़ चली हो आकाश में।
हर
इंसान अपनी बेहद खुशनुमा बात किसी आत्मीय, अपने घर वालों से शेयर करना चाहता है, लेकिन दिव्या अपनी खुशी का इज़हार
किससे करे। जब ‘साइबर
क्राइम’ जैसे
विषय पर उसे डॉक्यूमेन्ट्री बनाने की सलाह दी गयी थी तो वो कितना घबराई थी। उफ, इतना ख़ौफनाक विषय.....एक बार तो उसने
ना ही कर दिया था। लेकिन जब उद्भव सर ने उसे छोटी-सी बाइट बनाने को कहा और दोस्तों
ने भी ‘फोर्स’ किया तो उसने ये प्रोजेक्ट ले लिया, जबकि रायमा ने महिलाओं की सुरक्षा विषय
पर ‘बाइट’ बनायी। इरफान ने ‘स्वच्छता अभियान’ को चुना। पूरी क्लास भर में साइबर
क्राइम जैसे विषय पर दिव्या ने पायलेट प्रोजेक्ट बनाया। प्रोजेक्ट बनाने के
दौरान दिव्या को कितनी दिक्कतें पेश आयी थीं। क्राइम से जुड़े लोगों की पड़ताल
करना, उनसे बातें करना, उन्हें ‘कन्विन्स’ करना, फिर उन पर
अपनी मनोवैज्ञानिक रिसर्च कर, राय बनाकर लिखना... उफ...
कितने पापड़ बेलने पड़े थे। पुलिस स्टेशन जाकर चक्कर काटने पड़े। जब पहली बार पुलिस से इस
संदर्भ में बातचीत करने की कोशिश की तो उसने साफ इंकार कर दिया लेकिन दिव्या भी
कहां हार मानने वाली थी। ‘फ्रेंडशिप क्लब’…..एडल्ट साइट पर जाकर जूझती रही और अपना रिसर्च-वर्क
करती रही। अनगिनत काग़ज़ लिखे, फाड़े। एक बार तो उसे पुलिस वालों
का विरोध भी सहना पड़ा। इस जद्दोजेहद के बाद अपने अन्य ‘सब्जेक्ट’ की विधिवत पढ़ाई करते रहना...आखिरकार
दिव्या के अथक परिश्रम ने रंग लाया और पायलेट प्रोजेक्ट तैयार हुआ। उसके सपनों
की किताब का पहला अध्याय लिखा गया। और उसके नाम डॉक्यूमेन्ट्री अलॉट हुई।
शूटिंग में उसे बहुत सारी समस्याएं हुईं। सब्जेक्ट खौफनाक था। चुनौती बड़ी थी। शूटिंग के लिए पुलिस डिपार्टमेन्ट के सुपरिन्टेन्डेट जब आते तो वो मन ही मन भगवान से प्रार्थना करती कि कुछ ऐसा हो कि शूटिंग कैंसल हो जाए, जबकि इस मुश्किल डॉक्यूमेन्ट्री को पूरा करने का उसने प्रण खुद कर रखा था। सचमुच उसकी प्रार्थना सुन ली जाती……शूटिंग कैंसल भी हो जाती……एस.पी. की शूटिंग के दौरान कुछ अलग तरह की समस्याएं होतीं, जैसे कि प्रश्नों का चुनाव वो स्वयं करते।
शुरूआती दिनों में तो से मारे घबराहट और डर के रातों को नींद नहीं आती थी। मदद के लिए पाँच टीचर्स का पैनल था, उसमें आपस में ही पॉलिटिक्स होती थी। हर टीचर खुद क्रेडिट लेना चाहता था। सही मायनों में तो उद्भव सर, जो उसके ‘मेन गाइड’ हैं, उन्होंने ही काफी सहायता की। रात-रात भर जाग जागकर इस डॉक्यूमेन्ट्री की एडिटिंग-मिक्सिंग की। टीचर्स का ये पैनल और अच्छे दोस्तों का सहयोग और साथ ना मिलता तो दिव्या डॉक्यूमेन्ट्री तो क्या, छोटा मोटा प्रोजेक्ट भी नहीं बना पाती। बचपन से लेकर अब तक के उसके जीवन की ये पहली घटना है, जिस पर उसे अपने आप पर गर्व हो रहा है। उसे याद आ गये वो दिन, जब क्लास में हर कॉम्पटीशन उसके लिए सज़ा थी। वो परफार्म ही नहीं कर पाती थी, नजरें नीची झुकी हुई होती थीं और मम्मी का चेहरा आंखों के सामने होता था.....चाचा की बंदिशें आवाज़ को ज़ब्त कर लेती थीं। काश, आज वो अपने घर में होती तो……घर वालों की याद आते ही दिव्या मायूस हो गयी। एक ऐसी तलहटी में पहुंच गयी, जहां जाने का रास्ता तो है, लेकिन वहां से लौटना नामुमकिन।
शूटिंग में उसे बहुत सारी समस्याएं हुईं। सब्जेक्ट खौफनाक था। चुनौती बड़ी थी। शूटिंग के लिए पुलिस डिपार्टमेन्ट के सुपरिन्टेन्डेट जब आते तो वो मन ही मन भगवान से प्रार्थना करती कि कुछ ऐसा हो कि शूटिंग कैंसल हो जाए, जबकि इस मुश्किल डॉक्यूमेन्ट्री को पूरा करने का उसने प्रण खुद कर रखा था। सचमुच उसकी प्रार्थना सुन ली जाती……शूटिंग कैंसल भी हो जाती……एस.पी. की शूटिंग के दौरान कुछ अलग तरह की समस्याएं होतीं, जैसे कि प्रश्नों का चुनाव वो स्वयं करते।
शुरूआती दिनों में तो से मारे घबराहट और डर के रातों को नींद नहीं आती थी। मदद के लिए पाँच टीचर्स का पैनल था, उसमें आपस में ही पॉलिटिक्स होती थी। हर टीचर खुद क्रेडिट लेना चाहता था। सही मायनों में तो उद्भव सर, जो उसके ‘मेन गाइड’ हैं, उन्होंने ही काफी सहायता की। रात-रात भर जाग जागकर इस डॉक्यूमेन्ट्री की एडिटिंग-मिक्सिंग की। टीचर्स का ये पैनल और अच्छे दोस्तों का सहयोग और साथ ना मिलता तो दिव्या डॉक्यूमेन्ट्री तो क्या, छोटा मोटा प्रोजेक्ट भी नहीं बना पाती। बचपन से लेकर अब तक के उसके जीवन की ये पहली घटना है, जिस पर उसे अपने आप पर गर्व हो रहा है। उसे याद आ गये वो दिन, जब क्लास में हर कॉम्पटीशन उसके लिए सज़ा थी। वो परफार्म ही नहीं कर पाती थी, नजरें नीची झुकी हुई होती थीं और मम्मी का चेहरा आंखों के सामने होता था.....चाचा की बंदिशें आवाज़ को ज़ब्त कर लेती थीं। काश, आज वो अपने घर में होती तो……घर वालों की याद आते ही दिव्या मायूस हो गयी। एक ऐसी तलहटी में पहुंच गयी, जहां जाने का रास्ता तो है, लेकिन वहां से लौटना नामुमकिन।
वो
दिन ज़ेहन में ताज़ा हो गया। सूर्यास्त हो रहा था। दिव्या उदास होकर, रूठकर कमरे में बंद हो गयी थी।
वॉल-साइज़ विन्डो पर लगे परदे झटके से खींचकर कमरे में अँधेरा कर, एसी चलाकर चादर तान कर लेट गयी थी।
‘सात
बजे यहां सूर्यास्त होता है। आठ बजे लोग दफ्तर से घर लौटकर शाम की चाय पीते हैं।
ये कोई सोने का वक्त है उठो दिव्या—कहते हुए पारो ने चादर खींचकर परे सरका
दिया। वो सिहराने बैठकर दिव्या को दुलारती हुई बोली—‘भूख हड़ताल से तुम अपने मन की करवा
लोगी’?
दिव्या तमककर उठ बैठी।
--‘तो फिर क्या करूं कि मेरी डिमांड पूरी
होगी। इस घर में ज़रा-भी अपनी मरज़ी की करने के लिए जद्दोजेहद करनी पड़ती है।
कॉलेज की दस लड़कियां हिस्सा ले रही हैं उस कैटवॉक शो में। मैं अकेली नहीं हूं...
उस शो में सिर्फ हजार रुपए ही फीस है’।
‘सवाल
रुपए का नहीं, ड्रेस
का है। ‘फैशन-टीवी’ की नेकेड लड़कियों की तरह तुम भी पूरा
बदन हिलाकर बिल्ली चाल चलोगी?
--मम्मी, ‘कैट वॉक’
--‘कैटवाक कर मिस वर्ल्ड या मिस इंडिया बन
जाओगी.......? क्या
कहेंगे हम लोग अपनी सोसाइटी वालों से (मुंबई में चॉल समिति को सोसाइटी कहा जाता
है)। सोसाइटी वाले अब दूर हो गए ना अब तो ‘चॉल’ की दुनिया से टावर में रहने आ गए हैं।
अब भी सोसाइटी वालों का कैसा डर.....कैसा ख़ौफ़।
-‘मम्मी, यह सिर्फ ‘फैशन शो’ है स्टेज पर कैटवॉक करना है। इस पर
हमें प्राइज़ मिलेगा। आजकल बहुधा स्कूल कॉलेज में इस तरह के कॉम्पटीशन होते रहते
हैं। लास्ट ईयर रीना ने जीता था यह अवार्ड। उसे तो आप जानती हैं ना.......?’
--‘मैंने हामी भर दी, तो तेरे पापा नहीं मानेंगे। जैसे-तैसे तेरे पापा को मना भी लिया पर
तेरे चाचा को खबर लग गयी ना, तो वो पढ़ाई छुड़वा कर….तेरी शादी करवा कर ही दम लेंगे। अपने
पापा को तू अच्छी तरह जानती है...चाचा के खिलाफ एक लफ्ज़ भी नहीं सुनते वह।’
दिव्या
के लिए इस तरह का संघर्ष रोजमर्रा में शुमार हो गया था। अपनी एक भी बात
मनवाने के लिए उसे ऐसे ही रोज़ाना जूझना पड़ता था। यह ड्रेस मत पहनो। स्लीव-लेस नहीं चलेगा। शॉर्ट्स, मिनी स्कर्ट पहनना तो अलाउड ही नहीं था। सिर्फ कॉलेज जाते वक्त जींस और टॉप पहनने की बड़ी मुश्किल से इजाज़त मिल सकी थी। लेकिन साथ में स्तोल या दुपट्टा डालना ज़रूरी था। कॉलेज की शुरूआती दिनों में दिव्या घर से सलवार-सूट पहनकर निकलती और और रायमा के घर चेंज कर जींस और टॉप पहनती, फिर कॉलेज जाती। एक दिन चाची ने देख लिया तो खूब हंगामा हुआ था। पापा की हर बात मानने वाली मम्मी ने इस बार मर्म को समझा और इस वेस्टर्न पोशाक पर मोहर लगा दी थी....पर शर्त ये कि गला डीप नहीं होना चाहिए। सीना ढंका होना चाहिए।
मनवाने के लिए उसे ऐसे ही रोज़ाना जूझना पड़ता था। यह ड्रेस मत पहनो। स्लीव-लेस नहीं चलेगा। शॉर्ट्स, मिनी स्कर्ट पहनना तो अलाउड ही नहीं था। सिर्फ कॉलेज जाते वक्त जींस और टॉप पहनने की बड़ी मुश्किल से इजाज़त मिल सकी थी। लेकिन साथ में स्तोल या दुपट्टा डालना ज़रूरी था। कॉलेज की शुरूआती दिनों में दिव्या घर से सलवार-सूट पहनकर निकलती और और रायमा के घर चेंज कर जींस और टॉप पहनती, फिर कॉलेज जाती। एक दिन चाची ने देख लिया तो खूब हंगामा हुआ था। पापा की हर बात मानने वाली मम्मी ने इस बार मर्म को समझा और इस वेस्टर्न पोशाक पर मोहर लगा दी थी....पर शर्त ये कि गला डीप नहीं होना चाहिए। सीना ढंका होना चाहिए।
कॉलेज जाते वक्त ‘किसी लड़के से मेल-जोल नहीं करना, हाथ नहीं मिलाना, किसी की बाइक पर लिफ्ट नहीं लेना’….जैसी नसीहतों की घुट्टी मम्मी रोज पिलाती थीं। कॉलेज के फंक्शन में डांस और गाने में पार्टिसिपेट करने का सोचना भी पाप था। दिव्या के घर में कॉलेज का मतलब सिर्फ पढ़ाई-किताबें, इम्तिहान पास करना.....। एक्स्ट्रा करिकुलर की कोई जगह नहीं थी इस घर में...गुड गर्ल बनकर सिर झुका कर कॉलेज जाना और घर लौटकर रोज़ाना आने वाले मेहमानों का स्वागत करना और निपुणता से घर के कामकाज करना, यही उसकी बेहतरीन जिंदगी थी। अपनी राय दी....कि 10 मिनट का भाषण सुनने को मिल जाता था...कभी-कभी रायमा की बिंदास बातें उसे सही लगतीं। सब कुछ अपनी मर्जी से करो....घरवाले कन्विंस ना हों तो उनसे बहाने बनाओ या फिर झूठ बोलो। वो तो अक्सर लड़के-लड़कियों के ग्रुप के साथ ट्रैकिंग पर चली जाती थी। उसके घर वाले राजी भी हो जाते थे। दिव्या के घर वाले इतने पारंपरिक, रूढ़िवादी और दकियानूस हैं कि अभी भी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सपई गांव वाली मानसिकता उनके भीतर गहरी जड़ें जमाए हुए है। क्या गांव से जुड़े रहने का मतलब है अपनी सोच पिछड़ेपन के घूरे में जमा रखो…. समय के साथ विचारों की रीसाइकिलिंग बहुत ज़रूरी है। विचार उसूल ये सब दिव्या के घरवालों के लिए महज़ किताबी अलफाज़ हैं। वक्त पर खाना खाना, पैसे कमाना, साल में एकाध बार घूमने जाना.... यही शानो-शौक़त की जिंदगी है। उनके मुताबिक़ दिव्या को ये सब मिल रहा है।
पारो
दिव्या को समझा कर क्लांत हो गईं और कमरे से चली गईं।
उनके
जाते ही दिव्या उठी। अपने कटे बालों में बैकपिन लगाती हुई आईने के सामने खड़ी हो
गई। आगे-पीछे मुड़ मुड़ कर, गर्दन टेढ़ी करके....हर तरफ से अपने को निहारती हुई....अपने ही रूप
पर मुग्ध होती रही।
--रंग
सांवला है तो क्या हुआ….रूप और फिगर तो है न ख़ूबसूरत और चार्मिंग…..कॉलेज
के गेट पर खड़े लड़कों की नज़रें उस पर ठहर जाती हैं।
दिव्या
ने वार्डरोब से अपनी टाइट-फिट, साइट कट मैक्सी निकालकर पहनी। अपनी खुली टांगों को निहारा, हल्का मेकअप किया और उस तरह मटक-मटक कर, हाथ हिला हिलाकर बोलती रही जैसे MTV की कोई वी. जे. हो। अगर मम्मी पापा
राजी हो गए तो पक्का ‘कॉलेज क्वीन’ का खिताब उसे ही मिलेगा। सोचते हुए आंखें मूंद थोड़ी देर के लिए
दिव्या ‘स्प्रिंगफील्ड
बिल्डिंग’ की
12 वीं मंजिल की कैद से बाहर निकल ‘फैशन शो’ के भव्य स्टेज पर पहुंच गई थी... जहां
सामने बड़े-बड़े फिल्म स्टार बैठे थे। दर्शकों का हुजूम था। तालियों की गड़गड़ाहट
थी।
अकसर
ही दिव्या सपनों की एक चमकीली दुनिया में खो जाती थी...जहां युवा-मन के रोशन
चिराग़ होते हैं और हर ख्वाब मुकम्मल होता है। हर रास्ते की तयशुदा मंजिल होती
है। रास्ते में आयी हर अड़चन और रूकावट को युवा मन चुटकियों में दूर भगाना चाहता
है, भीड़ के महासागर में मनमाफिक मंजिल तक पहुंचने के
लिए रूकावटों के पत्थर को दूर भगाना भी पड़ता है।
सपने
पूरे करने के पीछे के संघर्ष को युवा-मन उस वक्त कहां समझ पाता है। उमंग और उत्साह
में डूबी दिव्या ने भी संजोया मखमली ख्वाब.... कि मास कम्युनिकेशन में 5 साल का इंटीग्रेटेड
कोर्स करेगी। इसके लिए उसे चाहे जो करना पड़े....घरवालों का विरोध भी वो अफोर्ड कर
लेगी।
--
कॉन्ग्रेट्स...किन ख्यालों में खोई हो बार्बी डॉल...इरफान दिव्या से ‘हाई-फाई’ करते हुए बोला।
दिव्या
अपने कॉलेज के दिनों से छम से कूद कर वापस आ गई होस्टल के लॉन में, जहां
सर्दी की नरम धूप का एक टुकड़ा दिव्या के नीले स्वेटर पर अटक गया। क्यारियों
में दुपहरिया खिल का मुस्कुरा रही है। हॉस्टल की दीवारों पर लटके बोगनविलिया
रानी-गुलाबी रंग से नहाकर और ताज़ा हो गए हैं।
--‘दिव्या यू आर लकी...तुम्हारा प्रोजेक्ट
खूब-खूब लाइक किया गया है। और रावत सर लास्ट मीटिंग में तुम्हारी और तुम्हारी बनाई
डॉक्यूमेंट्री की चर्चा कर रहे थे और प्रशंसा भी।’
दिव्या
बुत बनी बैठी रही, कोई जवाब नहीं दिया उसने...। दिव्या के मन में इस समय यादों का
भूचाल-सा आया हुआ है। हॉस्टल में आए 3 साल हो गए हैं। घर वालों को लेकर वह कभी भी
इतनी व्यग्र नहीं हुई। पर आज.....मम्मी जैसे सामने हैं, सौम्या
दी की नसीहतें कितनी आसान हैं। दिव्या स्मृतियों की रेतीली आंधी और तपिश से झुलस
गयी है। उड़ती हुई रेत से दिव्या अपना चेहरा बचाने की कोशिश कर रही है, लेकिन रेत की किरकिरी मुंह में भरी जा रही है और जैसे उसका पूरा बदन और मन
शुष्क-रूखा हुआ जा रहा है...तपिश और दंश को छोड़ आयी है घर पर, लेकिन हॉस्टल की जद्दोजेहद भी कहां कम है। आर्थिक तंगी... पढ़ाई का
प्रेशर, प्रोजेक्ट पूरा करने का तनाव और दबाव....रिश्तों
के समीकरण....इस सब में निपट अकेले तालमेल बिठाना कितना कठिन है। अपनी सारी जिम्मेदारी
घर वालों पर थी। सारा दोष घरवालों पर मढ़ देती थी, पर अब
अपनी ग़लतियों की सज़ा खुद को देनी है। ख़ुद को अपनी पीड़ा से भी निकालना है। दिव्या
खुद को तपते रेगिस्तान में पाती है। जहां दूर तक वीराना है, मालूम है नीयत दूरी तय करने पर उसे लोग मिलेंगे, शहर
मिलेगा, पर उस दूरी तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत और लंबा
संघर्ष है। हॉस्टल के कलीग्स, दोस्तों और टीचर्स के साथ
के बावजूद वो खुद को मरुस्थल में अकेला पाती है। कामयाबी मिल जाना भी कई बार बेहद
एकाकी बना देता है। कामयाबी कई बार अपने मित्रों से भी दूर कर देती है।
--‘व्हाट हैप्पेंड दिव्या.....तुम खुश
नहीं हो? अब
तो डॉक्यूमेन्ट्री से पैसे भी आ जायेंगे, तुम्हारी कड़की के दिन अब खत्म होने
वाले हैं। अब सिर्फ स्कॉलरशिप के भरोसे नहीं जीना होगा।’
नि:श्वास
छोड़ते हुए दिव्या बोली, नहीं यार, खुश हूं...आज घर वालों की तलब लगी है।
-- ‘तू उन्हें फोन करके बता दे कि तू खुश
है……तुझे
कितनी कामयाबी मिली है।‘
--‘नहीं नहीं इरफान, उनकी नाराजगी और बढ़ जाएगी। उन्हें पता
नहीं कि हम यहां रात रात भर बॉय-गर्ल्स साथ -साथ काम करते हैं एक दूसरे को ‘हग’ करते हैं। ‘फाइनल एडिटिंग’ वाले दिन मैं, रायमा और उद्भव सर ने एक ही रूम शेयर
किया था। बस थोड़ी देर के लिए झपकी ली थी बारी-बारी से। उन्हें इन सब की भनक भी लग
जाए तो मुझे जिंदा न छोड़ें। वैसे भी मैं कौन-सा उनके लिए जिंदा हूं। उस दिन फोन
पर मम्मी ने कह ही दिया था तू हम सबके लिए मर चुकी है।
--‘छोड़ ना यार, अब आगे की सोच...दो महीने बाद फंक्शन
है...ड्रामा का थीम तैयार हो गया है। इस बार एक ड्रामा एक कोरस सॉन्ग तैयार कर
लेते हैं’।
--‘इट्स गुड आयडिया...पिछले साल का फंक्शन
अप-टू-द-मार्क नहीं था...इस बार हम लोग कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। मैं तो बस दो
साल और बिताकर यहां से सीधा मुंबई वापस लौटूंगी। मम्मी पापा से दूर आयी हूं, उन्हें नाराज करके...तो कुछ बन कर ही
उनके पास जाऊंगी। टेलीविजन चैनल में काम करना……बस इतना-सा ख्वाब है.....।’
...’हां पर अब तुझे प्रॉब्लम क्या है।
मैंने सुना है तेरी बनायी वो ‘साइबर क्राइम’ वाली डॉक्यूमेंट्री entertainment चैनल के लिए अप्रूव हो गई है’।
‘हां
यार...अभी सिर्फ अप्रूव हुई है...टेलीकास्ट नहीं। मेरे सीरियल्स जब कई चैनल पर
टेलीकास्ट होंगे तब वह मेरी कामयाबी की पहली सीढ़ी होगी। वैसे ‘ज्ञान दर्शन’ चैनल ने हम सब की डॉक्यूमेंट्री का एक
मोन्टाज दिखाया था...रायमा बता रही थी।’
इरफान
ने घड़ी देखी, उसके
लेक्चर का टाइम हो रहा था...वहां से चला गया।
इरफान
के जाते ही दिव्या फिर स्मृतियों की कंटीली सघन झाडियों में उलझ गयी। गोया कोई
ऐसी मखमली याद नहीं है...जिसके दामन में वह सिर रखकर सुकून पाए, जो नरम स्पर्श से सहलाए। उसकी हर याद कसैली है। बारहवीं की पढ़ाई के
दौरान दिव्या ने कभी स्वावलंबी होकर कुछ नहीं किया। बहुत मन होता था डांस में, नाटक में हिस्सा लेने का...पर सब कुछ
प्रतिबंधित था। तीन भाई-बहनों में सौम्या
दी सबसे बड़ी, उसके
बाद दिव्या और सोनू छोटा। दिव्या के सामने सौम्या दी एक प्रतिमान की तरह थीं। हर बात
में सौम्या दी का उदाहरण दिया जाता था।
‘सौम्या
की तरह बनो, उसे
देखो, उसने
भी पढ़ाई की है...वगैरह वगैरह...’।
दिव्या
के घरवालों के मुताबिक़ सौम्या की अच्छाई के कुछ पैमाने निर्धारित थे, जो दिव्या को कतई गवारा नहीं थे। दिव्या
ने जब भी पढ़ाई के अलावा अपने देखे सपनों का जिक्र किया, तो सौम्या का उदाहरण सामने पेश कर दिया
गया। एक बार जब दिव्या ने ऊंची आवाज़ में कह दिया—‘सौम्या दी को आखिर क्या मिला।
आधी-अधूरी पढ़ाई कर ली...अब वह अपने ही घर में नौकर से भी बदतर हालत में जी रही
हैं। क्या फायदा इस जिंदगी का...मुझे नहीं बनना है सौम्या। मुझे टीवी चैनल और
फिल्मों में काम करना है....’
वाक्य
पूरा होता, इससे
पहले ही मम्मी का जोरदार चाटा गाल पर लगा था, उस दिन दिव्या कमरा बंद करके खूब रोई
थी। सौम्या दी को फोन लगाकर बोला था....’दी क्या किया तूने...तूने कभी घर में
किसी बात का विरोध नहीं किया। गऊ की तरह तू सहती रही। अभी भी सह रही है। सब चाहते
हैं मैं भी सौम्या बनूं...पर नहीं बन सकती...तू अपनी जिंदगी से खुश नहीं है, फिर
भी दिखाती है कि सब ठीक है। दी, सब ठीक और अच्छे जीवन में
फर्क है, जो
दीवार तू नहीं तोड़ सकी, मैं उसे तोड़कर बाहर निकलना चाहती हूं’।
बारिश
का मौसम था, वन
डे पिकनिक पर कॉलेज की टीम मालशेज घाट जा रही थी। कई दिनों की सिफारिश के बाद
दिव्या को परमिशन तो मिल गयी...पर उससे पहले उसे घर की अदालत के मुकदमे में तमाम
जिरह पर खरा उतरना पड़ा था।
--‘कितने लोग...कौन-कौन जा रहे हैं। वह
लड़के संस्कारी और कुलीन तो हैं ना। लड़कों से डिस्टेंस मेंटेन रखना। वे हाथ
मिलाने के बहाने लड़कियों के करीब आते हैं। और फिर दोस्ती की कड़ी जोड़ लेते हैं।
पर हमारे यहां लड़कों से लड़कियों की दोस्ती नहीं चलती। हम खानदानी लोग हैं।
तुम्हें मजबूरी में को-एजुकेशन में पढ़ाया जा रहा है'। समझाईश की यह पुड़िया चाचा ने थमाई
थी। चाची ने कपड़ों पर सवाल उठाया था......'झरने में भीग जाओगी, पारदर्शी कपड़ों पर लड़कों की नजर
फिसलती है, मोटे
कपड़े़ का कॉटन सूट पहनना। बाइक पर तुम्हारे चाचा के साथ बैठकर हम भी इतना घूमे
हैं लेकिन मजाल क्या, कि सिर का पल्लू भी कभी उतर गया हो’….चाची ने ज्ञान की घुट्टी दी थी। दिव्या
ने सोचा कि अगर वो बता दे कि वहां स्विमिंग पूल में स्विम सूट पहना पड़ेगा तो जाना
ही रद्द हो जाएगा ...फिर भी दिव्या ये कहने से नहीं चूकी कि चाची जब विनोद भैया
घर से इतनी दूर मनाली चार दिन की ट्रिप पर गए थे, तो ग्रुप में लड़कियां ज्यादा थीं
लेकिन विनोद भैया से इतनी जिरह किसी ने नहीं की थी क्योंकि वह इस घर के सुपुत्र
हैं’…..जिस
घर में सवाल पूछने की मनाही हो, वहां इस जुर्रत की सज़ा के तौर पर दिव्या को सबके सामने थप्पड़
खाना पड़ा था। जन्म देने वाली मम्मी का तो सबसे बड़ा हक बनता था...संस्कारों के
पुराने घिसे-पिटे पन्ने पढ़ाने का...वो हाथ पकड़ कर बेडरूम में खींचती हुई ले गई
थीं, लेकिन
अंदर जाकर उन्हें जाने क्या हुआ कि वो पुचकारने लगीं,…. ‘बेटी, कुदरत ने जो फासला बनाया है, लड़की लड़के में...उसे कोई पाट नहीं
सकता। हम संस्कारी लोग इतना आगे नहीं बढ़े हैं। हम कितनी भी सभ्यता सीख लें, हमारी सोच तुम्हारी पीढ़ी की तरह आधुनिक
और खुली नहीं हो सकती। हमें पता है तू दोहरी जिंदगी जीती है...घर में अलग और कॉलेज
में अलग। घर की दहलीज पार करते ही पूरी संस्कृति बदल जाती है...पर क्या करें हम मजबूर
हैं, हम भी
हिंदी में एम.ए. किये हैं। फैशन डिजाइनिंग में डिप्लोमा किये हैं। लेकिन वही खाना
बनाना-खिलाना। हम लड़कियों को अपनी राय या सिद्धांत बनाने की आज़ादी हमारे समाज ने
नहीं दी है। तेरे
पापा और तेरे चाचा की सोच हम नहीं बदल सकते’।
--‘बस मैं अपनी सोच बदलती रहूं। आप लोगों
के दकियानूस
रास्तों पर चलती रहूं मम्मी...। क्यों पढ़ाया मुझे इंटरनेशनल स्कूल में... सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया होता तो बेहतर होता’...दिव्या आंसू और गुस्से को जज़्ब करती हुई बोली....'आपको पता है, पूरी क्लास में सबसे बैकवर्ड मैं ही मानी जाती हूं...मेरा पहनावा, टिफिन, बोलचाल का तरीक़ा सब कुछ एकदम अलग है। मेरे फ्रेंड मेरा मजाक उड़ाते हैं। भैयानी कहते हैं। मेरी इंग्लिश स्पीकिंग की टांग खींचते हैं...कहते हैं, मैं हिंदी में इंग्लिश बोलती हूं, यू.पी. स्टाइल। पर अब नहीं...मुझे अपने दकियानूसी, थोपे गए, पिछड़े, घिसे-पिटे संस्कारों से बाहर आना होगा। आप लोगों की थोपी गयी परंपराओं से मुझे चिढ़ और ऊब होने लगी है। एक तो इतने छोटे से घर में इतने सारे लोग...कोई प्राइवेसी नहीं...मैं सारे दोस्तों के घर जाती हूं पर अपने फ्रेंड्स को घर नहीं बुला सकती, क्योंकि उनमें लड़के भी हैं...हमारे घर के लोग इतने कट्टर क्यों है, इतने बैकवर्ड क्यों हैं। इस घर में मेरे स्वस्थ और आधुनिक विचारों का आखिर गला क्यों घोंटा जाता है। ऐसा लगता है कि हम किसी गांव या टापू में रह रहे हैं...आप सब खेत में काम करने वाले मजदूर की तरह हैं’
रास्तों पर चलती रहूं मम्मी...। क्यों पढ़ाया मुझे इंटरनेशनल स्कूल में... सरकारी स्कूल में दाखिला करवा दिया होता तो बेहतर होता’...दिव्या आंसू और गुस्से को जज़्ब करती हुई बोली....'आपको पता है, पूरी क्लास में सबसे बैकवर्ड मैं ही मानी जाती हूं...मेरा पहनावा, टिफिन, बोलचाल का तरीक़ा सब कुछ एकदम अलग है। मेरे फ्रेंड मेरा मजाक उड़ाते हैं। भैयानी कहते हैं। मेरी इंग्लिश स्पीकिंग की टांग खींचते हैं...कहते हैं, मैं हिंदी में इंग्लिश बोलती हूं, यू.पी. स्टाइल। पर अब नहीं...मुझे अपने दकियानूसी, थोपे गए, पिछड़े, घिसे-पिटे संस्कारों से बाहर आना होगा। आप लोगों की थोपी गयी परंपराओं से मुझे चिढ़ और ऊब होने लगी है। एक तो इतने छोटे से घर में इतने सारे लोग...कोई प्राइवेसी नहीं...मैं सारे दोस्तों के घर जाती हूं पर अपने फ्रेंड्स को घर नहीं बुला सकती, क्योंकि उनमें लड़के भी हैं...हमारे घर के लोग इतने कट्टर क्यों है, इतने बैकवर्ड क्यों हैं। इस घर में मेरे स्वस्थ और आधुनिक विचारों का आखिर गला क्यों घोंटा जाता है। ऐसा लगता है कि हम किसी गांव या टापू में रह रहे हैं...आप सब खेत में काम करने वाले मजदूर की तरह हैं’
बहरहाल
तमाम पूछताछ के बाद आखिर में दिव्या को मालशेज घाट पर वनडे पिकनिक जाने की अनुमति
मिल ही गई। कैसा सुखद था वो सफर। पहाड़ों से उतरती पगडंडी सरीखी पानी की दूधिया
पतली धारा...कुदरत के तराशे पत्थरों को स्पर्श करती हुई... नीचे आकर एक सुरीला
संगीत पैदा कर रही थी। नीचे तक आते आते झरने का वेग इतना तेज हो जाता कि उसकी नीचे
नहाते हुए बदन चोटिल हो जाए। झरने के सफेद फेनिल पानी को जब दिव्या ने छुआ तो
रोमांच से भर गयी थी। झरने में दिव्या ने पूरे ग्रुप के साथ जी खोलकर मौज मस्ती
की। मालशेज घाट की गगन छूती ऊंची
पहाड़ियों के विहंगम दृश्य को दिव्या अपने मन में खूब गहराई तक बसा लेना चाहती
थी। पहाडियों और घाटियों की अनगिनत
तस्वीरें उसने अपने मोबाइल में कैद कीं। बाकी दोस्त जब पहाड़ों के और ऊपर चढ़ने की
कोशिश कर रहे थे, उस समय पेड़ों की झुरमुट की ढलान पर
बैठ दिव्या फटाफट कुछ वीडियो ले रही थी और अपने मोबाइल में वर्ड फाइल खोल कर इस
खूबसूरत नज़ारे का ब्यौरा टाइप कर रही थी। पत्तियों की सरसराहट, जुगलबंदी करती कूकती कोयल की तान रिकॉर्ड कर रही
थी। दूर दिखते कचनार, गुलमोहर के पेडों को जूम मोड पर अपने कैमेरे में जीवंत कर रही थी।
फूलों की वादियों से आती चंपा-चमेली की खुश्बू को अपने भीतर समो ले रही थी। उस
वक्त दिव्या की आंखें गुलाब सी खिलीं थीं। टी टी करती टिटहरी का गान भी रिकॉर्ड
कर रही थी। दिव्या इन वादियों में एक पंछी की तरह उड़ना चाह रही थी। ...मन से
बेहद बिंदास-अल्हड़ ढीठ दिव्या के चेहरे के पीछे एक संवेदनशील- रचनाशील
सृजनकर्मी भी छिपा है। शायद उसकी संवेदनशीलता...उसकी रचनात्मकता ही उसे बार बार
टेलीविज़न की दुनिया में जाने को उकसा रही थी।
पहले
मास मीडिया की पढ़ाई पूरी करनी है और कम से कम इंटीग्रेटेड कोर्स कंप्लीट हो ताकि
बाद में पीएचडी की जाए और फिर पूरी तैयारी से television की दुनिया में काम किया जाए। उसकी
तमन्ना है वो खुद लिखे और खुद ही प्रोड्यूस करे। सिर्फ धारावाहिक ही नहीं एनीमेशन
फिल्म भी बनाने के सपने का अंकुर भी प्रस्फुटित हो गया था। दिव्या की आंखों में
अनगिनत चमकीले सपने परवाज़ लेते हैं। उसका हर सपना घरवालों के रूढ़िवादी विचारों की
वेदी पर झोंक दिया जाता है। उसके घरवालों के लिए ये सब कोरी बकवास के सिवा कुछ
नहीं। उनका मानना है कि पढ़ाई कोई भी कर लो, पढ़ाई के बाद ब्याह करके घर गृहस्थी ही
संभालनी है, जबकि
दिव्या ने गृहस्थी को कहीं तीसरे या चौथे पायदान पर रखा था। पहाड़ों के सर्पीले
रास्तों से गुजरते हुए जब दिव्या अपने दोस्तों के साथ लौटने लगी, तो सामने से विनोद भैया आते दिखाई
दिये। मन तो किया झटके से वो गाड़ी में बैठ जाए, लेकिन उन्हें अनदेखा नहीं कर सकी।
विनोद भैया आकर दिव्या के कान में धीरे-से बोले...’उस लंबू से सट-सट कर ताली दे-दे कर
इतना खींसें क्यों निपोर रही थी..?”
--विनोद
भैया!………
दिव्या को जलती आँखों से लिलोरते हुए विनोद भैया बाइक स्टार्ट करके पल भर में आँखों से ओझल हो गए। दिव्या तिलमिला कर रह गई।
दिव्या को जलती आँखों से लिलोरते हुए विनोद भैया बाइक स्टार्ट करके पल भर में आँखों से ओझल हो गए। दिव्या तिलमिला कर रह गई।
घर
पहुंचते पहुंचते रात के नौ बज गए थे। इस घर में ये वक्त लड़कियों के लिए बाहर से
लौटने का नहीं है। छोटे भाई सोनू ने दरवाजा खोला और अपने स्टडी टेबल पर बैठकर
पढ़ने में मशगूल हो गया। चाचा हाथ में रिमोट लिए टीवी के चैनल बदल रहे थे। टीवी
बंद करते हुए उन्होंने दिव्या को ऐसे देखा, जैसे वो कोई बड़ा अपराध करके लौटी हो।
कॉरिडोर पार करती हुई बेडरूम तक पहुंची भी नहीं थी कि चाचा की रौबदार-जालिम आवाज
ने कानों में चोट पहुंचाई। बेतरह थकी हुई दिव्या का मन कर रहा था कि चाचा की पुकार
को अनसुना करके सीधे बिस्तर पर पड़ जाए। लेकिन चाचा की हैसियत इस घर में पापा से
भी बढ़कर थी। इसकी एक वजह तो यह थी कि चॉल में इतनी लंबी जिंदगी बिताने के बाद जब
बड़े से टावर में घर लेने का सपना पूरा हुआ, तो ब्लैक-मनी की बड़ी एकमुश्त रकम का
इंतजाम चाचा ने किया था। लोन अमाउंट भी उनका ज्यादा था। घर ख़रीदने में पापा की
पूंजी कम लगी थी। जबकि दिव्या तीन भाई-बहन मिलाकर पाँच लोग हैं और चाचा के परिवार
में विनोद भैया, चाची
चाचा... कुल मिलाकर तीन लोग। मतलब ये एक आदर्श संयुक्त परिवार था।
दिव्या
सिर झुकाकर अपराधी की तरह सामने सोफे पर बैठ गयी। विनोद भैया की लगायी आग चाचा की
ज़बान के ज़रिये घर में धधक रही थी। उनकी लाल आंखें शोले उगल रही थीं और उस में वो
जल रही थी। ऊपर से तो वो बुत बनी थी, लेकिन उसके मन में विद्रोह का ज्वालामुखी
फट रहा था। वो अपने आप से ही पूछ रही थी कि आखिर उसका दोष क्या है। जमाना कहां
पहुंच गया है, स्त्रियां
धरती के हर छोर पर पहुंच गयी हैं, स्पेस तक में अपना परचम लहरा रही हैं। ये संकुचित सोच के
चाचा....लड़कों के साथ घूमने क्या चली गयी....घर सिर पर उठाए हुए हैं। खुद तो
चाची की सहेलियों से मुस्कुराकर खूब रस रस लेकर बतियाते हैं। लेकिन दिव्या इस घर
की बेटी है और वो लड़कों के साथ घूमने गयी, तो गलत करार दिया गया और उसे चाचा से
बेवजह मार भी खानी पड़ी। इस आदर्श परिवार में बड़े होकर भी बात-बात में पिट जाना
आम बात है और कुलीन संस्कार में शुमार है। विनोद भैया ने दिव्या और इरफान को लेकर
अफसाना गढ़कर चाचा और पापा से कह सुनाया था। वो भी इस तरह जैसे दिव्या कई दोस्तों
के साथ ना जाकर अकेली इरफान के साथ गयी हो, जबकि
इरफान भी अन्य लड़कों की तरह महज़ एक दोस्त था। मम्मी ने भी चाचा-पापा के पंचम सुर
में अपना मंद्र सप्तक का सुर मिला दिया था।
‘दिव्या, लड़की हो, इरफान से मिलना जुलना कम करो। लड़की का
चरित्र सफेद चादर की तरह होता है। एक छींटा भी दाग़ लगा देता है। तुम जानती हो
हमारे यहां ये सब नहीं चलता’।
उस
दिन दिव्या का दिल दर्द से कराह रहा था। अनगिनत ख़रोंचें लगी थीं। मालशेज घाट में
देखे फूल मुरझा गये थे। बेचैन मन आंसुओं का झरना बन बहता रहा बहुत देर तक... कमरे
का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। रोने के बाद मन हल्का हुआ, तो मोबाइल उठाया.....Facebook पर मालशेज घाट की पहाड़ियों की
तस्वीरें अपलोड कीं और whatsapp पर अपनी सहेलियों से बहुत देर तक चैट करती रही।
इसी बहाने अपना जी बहलाती रही। दिव्या हमेशा ऐसा करती थी.....जब उसे ज्यादा डांट
पड़ती या मार पड़ती तो पहले खूब रोती थी, लेकिन
उसके आंसू उसे सख्त
बनाते। और फिर इस तरह परिस्थितियों से जूझने का हौसला उसके भीतर पैदा होता था। उस
दिन की मार के बाद दिव्या ने अपने आप को काफी नि:संग पाया, डांट और मार का असर भी कम होने लगा था। उस दिन वो चाचा की डांट और
मार से पिकनिक का सुखद अहसास कसैला नहीं करना चाहती थी, इसलिए सोशल नेटवर्किंग का दामन थाम सुकून
महसूस कर रही थी। उन दिनों घर में एक सिलसिला सा बन गया था, बात बात में दिव्या को एहसास कराया
जाता कि वह एक लड़की है, उसे सलीके से रहना चाहिए। इसके उलट दिव्या कॉलेज के माहौल के अनुरूप खुद
को ढाल रही थी। रायमा अक्सर उसे खुलेपन की तरफ खींचती। वह कहती थोड़ी आजाद-ख्याल बनो, वरना किसी भी मर्द के पल्लू में बांध कर क़ैद कर
दिया जायेगा और सारी जिंदगी गृहस्थी की चक्की पीसती रहोगी।
‘दिव्या…! दिव्या..! स्वीट-हार्ट तुझे क्या हुआ है। किन ख्यालों में, कहां खोई है तू। दिव्या तुझे कब से आवाज दे रही हूं...... ए.वी. रुम
में सब लोग तेरा इंतजार कर रहे हैं। ड्रामा की रिहर्सल है और इस बार उद्भव सर और
तान्या मैम
भी ड्रामा में पार्टिसिपेट करेंगे।‘
--'ओह'.......
--‘तेरा लिखा अधूरा ड्रामा इरफान ने पूरा कर दिया। जानती है कितना अच्छा लिखा है उसने। तानिया मैम अपने रोल से इतनी खुश हो गई कि उन्होंने इरफान को आज खूब कस के गले लगा लिया’।
दिव्या की आंखों के सामने वह दृश्य कौंध गया जब उसे तुषार से हाई-फाई करते हुए विनोद भैया ने देख लिया था। घर जाकर कैसी चुगली की थी और इस बात को लेकर भी घर में हंगामा हुआ था। चाचा का लंबा चौड़ा भाषण सुनना पड़ा था। चाचा की डांट एक अनपढ़ ग्रामीण की तरह थी, जिसे सुनना बुखार-सी पीड़ा देता। उस घर में विनोद भैया की भूमिका महज़ एक जासूस की थी।
--‘अगर घरवाले कॉलेज का ऐसा ओपन माहौल देख लें तो जाने क्या होगा’….दिव्या सोचती है, घर और बाहर की दुनिया कितनी अलग है। घर में जो गलत है वही बाहर कॉलेज में नॉर्मल है....रूटीन है....इन सब बातों पर तो आजकल किसी का ध्यान भी नहीं जाता, लेकिन दिव्या के घर में यह एक तरह का अपराध है।
--‘चल दिव्या, तू तो ड्रामा की हीरोइन है और जानती है हीरो का रोल कौन कर रहा है’......?
दिव्या ने कोई उत्साह नहीं दिखाया।
भी ड्रामा में पार्टिसिपेट करेंगे।‘
--'ओह'.......
--‘तेरा लिखा अधूरा ड्रामा इरफान ने पूरा कर दिया। जानती है कितना अच्छा लिखा है उसने। तानिया मैम अपने रोल से इतनी खुश हो गई कि उन्होंने इरफान को आज खूब कस के गले लगा लिया’।
दिव्या की आंखों के सामने वह दृश्य कौंध गया जब उसे तुषार से हाई-फाई करते हुए विनोद भैया ने देख लिया था। घर जाकर कैसी चुगली की थी और इस बात को लेकर भी घर में हंगामा हुआ था। चाचा का लंबा चौड़ा भाषण सुनना पड़ा था। चाचा की डांट एक अनपढ़ ग्रामीण की तरह थी, जिसे सुनना बुखार-सी पीड़ा देता। उस घर में विनोद भैया की भूमिका महज़ एक जासूस की थी।
--‘अगर घरवाले कॉलेज का ऐसा ओपन माहौल देख लें तो जाने क्या होगा’….दिव्या सोचती है, घर और बाहर की दुनिया कितनी अलग है। घर में जो गलत है वही बाहर कॉलेज में नॉर्मल है....रूटीन है....इन सब बातों पर तो आजकल किसी का ध्यान भी नहीं जाता, लेकिन दिव्या के घर में यह एक तरह का अपराध है।
--‘चल दिव्या, तू तो ड्रामा की हीरोइन है और जानती है हीरो का रोल कौन कर रहा है’......?
दिव्या ने कोई उत्साह नहीं दिखाया।
--‘पूछेगी नहीं........?
दिव्या अपनी पलकें प्रश्नवाचक मुद्रा में उठा देती है।
--‘उद्भव सर’…..
अनमनी-सी दिव्या उठकर अपने रूम की ओर चल देती है। जाते-जाते कहती है,
--रायमा, सर और मैम को मैसेज दे देना....प्लीज़ आज मैं रिहर्सल पर नहीं आ पाऊंगी।
--‘क्या हुआ…चल ना।
--‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है’.... कहते हुए दिव्या बरामदे की ओर मुड़ जाती है। रायमा उसका मन टटोलने की कोशिश करती है, लेकिन नाकामयाब रहती है। हॉस्टल के कमरे में जाकर दिव्या ड्रामा की स्क्रिप्ट निकालती है। कल तो रिहर्सल में जाना ही होगा। एक रीडिंग जरूरी है। अपने आप से ही गुफ्तगू करती है। आखिर यह चमकीला सपना मैंने ही तो देखा है। मेरे ही सपने का हिस्सा है यह। फिर मेरा मन क्यों घबरा रहा है। अपनों से दूर होने की कसक इतनी ज्यादा आज क्यों सता रही है। भारी मन से स्क्रिप्ट के पन्ने पलटने लगती है...साथ में अपनी डायरी लेकर बैठ जाती है। जब मन के भीतर तूफान मचा हो....हवाओं का रुख बार-बार एक ही दिशा में भागा जा रहा हो.... तो मन को संभालना...समझाना बड़ा मुश्किल होता है। आज दिव्या का मन खुद से ही जद्दोजहद कर रहा है कि कहीं उसने गलत फैसला तो नहीं कर लिया......अगर डॉक्यूमेंट्री टेलीकास्ट नहीं हुई तो अगले सेमिस्टर के लिए फीस के पैसे कहाँ से आएंगे….पिछले सेमिस्टर में भी स्कॉलरशिप के पैसे से फीस पूरी नहीं हुई थी…. इरफ़ान और राइमा ने मिल कर बाक़ी फीस ऑन लाइन भर दी थी। उनका यह एहसान कैसे चुकायेगी। अगले दोनों सेमिस्टर में ज़्यादा फीस की ज़रुरत होगी। प्रोजेक्ट वर्क भी ज़्यादा होगा, प्रोजेक्ट वर्क में लगने वाली सामग्री काफी महंगी होती है….कहाँ से आएगी ये रकम...उसका तनाव बढ़ता ही जा रहा है...वह जब मन से परेशान होती है तो अपने आपको अकेलेपन के महासागर में डुबो देती है। अपने एकाकीपन से खुद को बाहर नहीं निकालना चाहती, अपनी पीड़ा को तार-तार महसूस करती। अपनी बेचैनी को सहलाती है और उससे जूझती भी है। उसे अपने आप पर गुस्सा आता है। अपने हालात पर भी, घर वालों पर भी...लेकिन एकाकीपन के उसके यह लम्हे उसके प्रिय होते हैं। ऐसे में वह या तो अपनी डायरी उठाती है या फिर खिड़की से बाहर खाली नजरों से देखती है। आज वो दोनों कर रही है। शून्य में देखती हुई अपनी डायरी उठाती है। पन्नों के बीच से एक मुडा-तुड़ा कागज़ मिलता है।
मुंबई से वर्धा तक का जनरल टिकट.....। दिव्या अपनी पलकें प्रश्नवाचक मुद्रा में उठा देती है।
--‘उद्भव सर’…..
अनमनी-सी दिव्या उठकर अपने रूम की ओर चल देती है। जाते-जाते कहती है,
--रायमा, सर और मैम को मैसेज दे देना....प्लीज़ आज मैं रिहर्सल पर नहीं आ पाऊंगी।
--‘क्या हुआ…चल ना।
--‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है’.... कहते हुए दिव्या बरामदे की ओर मुड़ जाती है। रायमा उसका मन टटोलने की कोशिश करती है, लेकिन नाकामयाब रहती है। हॉस्टल के कमरे में जाकर दिव्या ड्रामा की स्क्रिप्ट निकालती है। कल तो रिहर्सल में जाना ही होगा। एक रीडिंग जरूरी है। अपने आप से ही गुफ्तगू करती है। आखिर यह चमकीला सपना मैंने ही तो देखा है। मेरे ही सपने का हिस्सा है यह। फिर मेरा मन क्यों घबरा रहा है। अपनों से दूर होने की कसक इतनी ज्यादा आज क्यों सता रही है। भारी मन से स्क्रिप्ट के पन्ने पलटने लगती है...साथ में अपनी डायरी लेकर बैठ जाती है। जब मन के भीतर तूफान मचा हो....हवाओं का रुख बार-बार एक ही दिशा में भागा जा रहा हो.... तो मन को संभालना...समझाना बड़ा मुश्किल होता है। आज दिव्या का मन खुद से ही जद्दोजहद कर रहा है कि कहीं उसने गलत फैसला तो नहीं कर लिया......अगर डॉक्यूमेंट्री टेलीकास्ट नहीं हुई तो अगले सेमिस्टर के लिए फीस के पैसे कहाँ से आएंगे….पिछले सेमिस्टर में भी स्कॉलरशिप के पैसे से फीस पूरी नहीं हुई थी…. इरफ़ान और राइमा ने मिल कर बाक़ी फीस ऑन लाइन भर दी थी। उनका यह एहसान कैसे चुकायेगी। अगले दोनों सेमिस्टर में ज़्यादा फीस की ज़रुरत होगी। प्रोजेक्ट वर्क भी ज़्यादा होगा, प्रोजेक्ट वर्क में लगने वाली सामग्री काफी महंगी होती है….कहाँ से आएगी ये रकम...उसका तनाव बढ़ता ही जा रहा है...वह जब मन से परेशान होती है तो अपने आपको अकेलेपन के महासागर में डुबो देती है। अपने एकाकीपन से खुद को बाहर नहीं निकालना चाहती, अपनी पीड़ा को तार-तार महसूस करती। अपनी बेचैनी को सहलाती है और उससे जूझती भी है। उसे अपने आप पर गुस्सा आता है। अपने हालात पर भी, घर वालों पर भी...लेकिन एकाकीपन के उसके यह लम्हे उसके प्रिय होते हैं। ऐसे में वह या तो अपनी डायरी उठाती है या फिर खिड़की से बाहर खाली नजरों से देखती है। आज वो दोनों कर रही है। शून्य में देखती हुई अपनी डायरी उठाती है। पन्नों के बीच से एक मुडा-तुड़ा कागज़ मिलता है।
अजीब थी वो रात.... ऊंची अट्टालिकाओं के ऊपर औंधा आसमान जैसे कुछ नीचे सरक आया हो....आसमान में टंगे चाँद और जगमग करते सितारे यूं लग रहे थे जैसे कि दिव्या हाथ बढ़ाकर उन्हें अपने बैग में रख लेगी....खाली आंखों के सामने वह दृश्य तिर जाता है जब घर से अकेली निकल आई थी। दिव्या ने बैग में थोड़ा सा सामान रखा था। इरफान और राइमा को भी उसने अपनी योजना के बारे में नहीं बताया था। एंट्रेंस एग्जाम में पास हो गई थी। लेटर आया, उसे मास कम्युनिकेशन इंटीग्रेटेड कोर्स में एडमिशन मिल गया था। टेलीविजन प्रोडक्शन मैनेजमेंट कोर्स करने के लिए उसे 5 साल के लिए वर्धा में रहना पड़ेगा। सुनते ही तूफान आ गया। पाँच साल पढ़ते-पढ़ते बूढ़ी हो जाओगी, पराए शहर में जाकर कैसे गुजारा होगा....किसके साथ रहोगी....वहां कोई नातेदार रिश्तेदार नहीं है....हॉस्टल में रहने के नाम से पापा और चाचा ने ऐसे दस हादसों का जिक्र किया था, जिनकी खबर अखबार में छपी थी। हॉस्टल में रहना लड़कियों के लिए बिल्कुल सुरक्षित नहीं है। हम लोग तुम्हें दूसरे शहर जाकर पढ़ाई करने की इजाजत कतई नहीं देंगे। अगले दिन रायमा घर आयी थी समझाने। इरफान और तुषार ने भी फोन पर मम्मी से बहुत इसरार किया था.....'आंटी दिव्या को जाने दो। हम सब रहेंगे.... उसकी देखभाल कर लेंगे। दिव्या ने घरवालों को बहुत समझाया.... मेरे साथ रायमा रहेगी.... कोई परेशानी होगी तो हम दोनों एक दूसरे से शेयर कर लेंगे। फिर आज तो फोन का जमाना है। टेक्नोलॉजी के इस जमाने में तो हम दिन में कई बार बात कर सकते हैं। वेबकैम के जरिए हम रोज चैट करेंगे मम्मी'।
बोझिल कदमों से चलती हुई दिव्या का मन अपने करियर के लिए उत्साही था। लेकिन घरवालों को छोड़कर यूं चुपके से आना.... उसके कलेजे पर जैसे आरी चल रही थी। और वो पीड़ा से कराह रही थी। रास्तों का पता नहीं....नदी के उस पार टिमटिमाते हुए दिये की मद्धिम रोशनी....। कैसे जायेगी वो उस पार। कोई साथ नहीं, कोई सहयोग नहीं। सिर्फ एक स्कॉलरशिप के बूते पर पूरी पढ़ाई कैसे होगी। वह विचारों की गहरी खाई में उतरती गयी। चलते चलते दिव्या स्टेशन पहुंच गयी थी। सीढ़ियां उतरकर उसने सामने खाली पड़ी एक बेंच पर अपनी काया को धकेलते हुए बिठा दिया। प्लेटफार्म पर दूर टिकी आंखों के सामने रात का अँधेरा था, गुलाबी ठंड थी, मौसम पर धुंध छाई थी और दिव्या की आंखों पर भी। दिव्या खाली निचाट आंखों से दूर देख रही थी। डीज़ल इंजन वाली ट्रेनें आ रही थीं, जा रही थीं। सारी गाडियों का वक्त और गंतव्य निर्धारित था। पर दिव्या की ट्रेन का ना तो नियत समय था और ना ही नियत मंजिल। किस शहर में जाना है ये तो पता है। लेकिन किस ट्रेन से....ये तो दिव्या ने सोचा ही नहीं था। ना तो उसके पास यात्रा का टिकट था और ना ही पराए शहर में पहुंचने के बाद का कोई ठिकाना....मंजिल इतनी दूर थी कि वो ऊहापोह में थी, मिलेगी उसे मंजिल या नहीं। उस रात कई गाडियां आती और जाती रहीं। अंत में अपने भीतर हौसला पैदा करती हुई, खुद ही हौसले से डग भरती हुई वो एक ट्रेन में बैठ गयी थी। यही वो टिकिट था जिसने उसे वर्धा पहुंचाया था। हाथ में पकड़ा हुआ टिकिट कड़कड़ाती सर्दी में भी पसीने से गीला हो गया था। उसे घबराहट सी हो रही थी।
वर्तमान की धूप और अतीत का कोहरा……उसने आंखें मिचमिचाकर, कस कर अपनी हथेलियां रख लीं थीं……हथेलियों पर कुछ सर्द बूंदें चिपक गयी थीं। हॉस्टल की कैंटीन में बजने वाली बेल से दिव्या की तंद्रा टूटी। रोज़ शाम चाय के टाइम पर यही बेल बजती है। कोहरे से डूबी शाम अब अंधेरे की काली चादर ओढ़ रही है। लॉन के लैंप-पोस्ट की मद्धम रोशनी किलहटी के उस जोड़े पर झिलमिल कर रही है, जिसने अभी-अभी बसेरा लिया है.....पक्षियों के झुंड पेड़ों की पत्तियों में छिप गये हैं.....सोने से पहले का उनका समवेत गान बज रहा है और दिव्या के कान में नाटक के गीत का वो हिस्सा गूंज रहा है, जो उसे मंच पर गाना है। इस नाटक की वीडियो रिकॉर्डिंग कॉलेज की लाइब्रेरी में संग्रहीत की जाएगी और उसके करियर में एक और सुनहरा पन्ना जुड़ जाएगा।
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete