'मोहे पिछवरवा चंदन गाछ' और गांव की विकल याद--बतकही की पहली पोस्ट
एक दिन मैंने अपने पति महोदय से मीठी-सी शिकायत कर दी, ब्लॉग पर सबके लिए जाने कहां-कहां से ढूंढ-ढांढकर दुर्लभ गीत और भजन वग़ैरह-वग़ैरह पेश करते रहते हो, लेकिन मेरे लिए कुछ लोक-रचनाएं और कृष्ण भजन संकलित नहीं कर सकते । कहकर मैं तो भूल गई ।
कई दिन बीते, अचानक एक दिन पति महोदय ने मुझे सुबह-सुबह जगाया । मैंने सोचा आज ये उल्टी धारा........'ये' पहले उठ गए । याद करने की कोशिश की, मेरा जन्मदिन या शादी की सालगिरह तो नहीं.............क्योंकि आमतौर पर ये उल्टी धारा इन्हीं ख़ास दिनों में बहती है । अचानक म्यूजिक-सिस्टम पर 'यारो सुनो' भजन की मिठास पूरे घर में घुलने-मिलने लगी । घर का पूरा माहौल कृष्ण भजन के रस से भावविभोर होने लगा । मैं मुदित हुई जा रही थी । एक के बाद एक कृष्ण-भजन बज रहे थे और मैं भाव-विव्हल ।
एक भजन ने तो मुझे बचपन के संसार में ही लौटा दिया । 'मोरे पिछवरवा चंदन गाछ' । इस सोहर ने मुझे बार-बार ये अहसास दिलाया कि रॉक-एन-रोल, सिंह-इज़-किंग, दर्दे-डिस्को के इस तेज़ दौर में भी असल में हमारे प्राण लोक-रचनाओं में ही बसते हैं । सिंह इज़ किंग सुनते हुए आंखों के सामने कोई दृश्य क्यों नहीं कौंधता । 'मोरे पिछवरवा' सुनते हुए आंखों के सामने बचपन का वो
बच्चे के जन्म पर गाये जाने वाले 'सोहर' ने आज जाने कौन कौन से रूप धर लिये हैं । गांव-कस्बों में आज भी बच्चे के जन्म पर देवी-गीत जैसे--'द्वारे तिहारे भई भीर हो जगदंबा मईया' या फिर 'जनम लियो ललना' या फिर 'छोटी ननदिया हठीली कंगना मारे रे' या फिर 'धीरे धीरे पियवा जो आये त हम जानी हंसउआ करि गए' ।
गांव कौंध गया, जहां सिर्फ दो साल बिताए । लेकिन यादें इतनी ढेर सारी कि लिखने चलें तो लेखनी भी चुकने लगे । 'मोरे पिछवरवा' सुनते हुए मुझे बचपन की वो 'बढ़ईन काकी' याद आ गयीं । जो रहती थीं चार-पांच घर पीछे.........। यूं तो ज़मींदारी के उस दौर में जात-पात का बड़ा भेद-भाव था । बढ़ईन काकी, ठाकुरों-ब्राम्हणों के बराबर नहीं बैठती थीं । लेकिन हमारे घर में बड़े अधिकार से वो 'काकी' की तरह की आती-जाती थीं । और अधिकार से हम लोगों को डांटती फटकारतीं । आग्रह करने पर गीत-गवनई की ऐसी तान छेड़तीं कि बस आप सुनते ही रहें । 'बन्ना-बन्नी' हो, विवाह-गीत हो, देवी-गीत हो, सोहर, बिरहा या कोई भी लोकगीत.......बढ़ईन काकी के सुर के बिना अधूरा ही रहता । किसी के घर बच्चा हुआ हो, कोई उत्सव हो, तीज-त्यौहार हो......लगभग साठ साल की बढ़ईन काकी ज़रूर पहुंचतीं और सबसे पहले पहुंचतीं । और उनके पहुंचते ही 'गाने-बजाने' में चार चांद लग जाते ।उनके कुछ मशहूर गाने भी बताती चलूं ।
'अरे गोहुं-आ......अरे गोहुं-आ, सुखवने डारीऊं हो' ।
'अमवा के तरे डोला रखि दे कहरवा हो, देखि लेंईं गंउआं की ओर'
'मोरे पिछवरवा लवंगिया के पेड़वा हो, लवंग चुवई आधी रात'
'देहूना मोरी माई फूल की डलरिया हो, फुलवा चुवई आधी रात हो'
'बहिनी पिपरी के लंबे-लंबे पात, दुआरे बायों पीपरिया'
ये तमाम गीत बढ़ईन काकी के सुर में खूब सजते थे और हम भी चाव से उन्हें दोहराते । जो लोग उत्तरप्रदेश से ताल्लुक रखते हैं , ये रचनाएं उन्होंने जरूर सुनी होंगी । इसी तरह की महिलाओं में और कई नाम हैं । जैसे मेरी भाभी की बहन सुधा गाने में खूब माहिर थीं । मेरी मां तो आज भी कुछ लोक रचनाएं गाने लगती हैं, तो हम भाई-बहनों की आंखें नम हो जाती हैं । 'अमवा के तरे डोला रखि दे कहरवा हो' इस ग्रामीण लोक-रचना की तर्ज पर एक लोकगीत प्रचलित हुआ । इसमें थोड़ा फेरबदल करके सुधा मल्होत्रा ने गाया था । बोल थे--निबुआ तले डोला रख दे मुसाफिर' । किसी दिन मौक़ा लगा तो 'बतकही' पर आपको ये गीत भी सुनवाया जायेगा । लेकिन जो रस गांव की दादी-नानी और काकी के स्वर में इस रचना में मिलेगा, वो किसी एल.पी. रिकॉर्ड या सी.डी. में कहां है ।
बानगी के तौर पर-----'बपई तो देहेन मोहे अंधन सोनवा हो, माई त दिहिन मोहे लहंगा बटोर, भईया त दिहिन मोहे अरबी घोड़वा, भउजी के रहि गए जहर के बोल' ।

बहरहाल बात की शुरूआत हुई थी,छन्नूलाल मिश्रा के गाये इस सोहर से---'मोरे पिछवरवा चंदन गाछ' । छन्नू लाल मिश्रा ने अपनी खरजदार आवाज़ में खटका -मुरकी के साथ जो गाया है वो बेमिसाल है । इस लोक-रचना में भी पूरी की पूरी कथा समाई है कि श्रीकृष्ण पैदा होते हैं और छह दिन में ही मुरली की तान छेड़ने लगते हैं । इस छोटी सी घटना को कितने सुंदर ढंग से समेटा गया है इस सोहर में ।
waah waah!! kya baat hai..hum to yun bhii apney gaav ghar kii yaadon se nikal nahi paatey...aapney gazab kiya ye sunvaakar...SOHAR jub BUUAA badhaayi aur ulhaney ke saath..gaati hain...to kya majaal ki aankh na bhar aaye..aabhaar is prastuti kaa
ReplyDeleteवाह - सोहर मैने कभी सुना न था सिवाय घरों में स्त्रियों का गाया।
ReplyDeleteछन्नूलाल मिश्र जी का गाया सुन आनन्द आ गया!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअब गाँव कम जाना होता है, इसलिए सोहर, विवाह गीत, गारी गीत कम सुनने को मिलता है। आपने यादें ताज़ा कर दी। एक बार अविनाश (मोहल्ला) ने छन्नूलाल की रिकॉर्डिंग भेंट की थी, अक्सर सुनता रहता हूँ।
ReplyDeleteग्रामीण परिवेश से नाता कम ही रह गया है इसलिए ऍसे गीत अब मीडिया के माध्यम से ही अपने पास तक पहुँचते हैं। अच्छा लगा इस गीत और इसके पीछे के आपके संस्मरण को पढ़ कर।
ReplyDeleteहिंदी चिट्ठा जगत में आपके आगमन के लिए ढ़ेर सारी बधाईयाँ।
ममता पहले तो बधाई की आपने अब ब्लॉगिंग शुरू कर दी। और अब आशा है कि हम दोनों के नाम से होने वाला confusion दूर हो जायेगा।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा और सादगी से लिखा है ।
याद क्या आना है जब कुछ भूले ही नही है।
देवी गीत,बन्ना-बन्नी और सोहर,और गाली के बिना भला कहाँ घर मे कोई शुभ काम जैसे शादी-ब्याह संपन्न होता है।
मिश्रा जी की आवाज मे इतना बढ़िया सोहर सुनवाने का शुक्रिया।
ममताजी शहर की सिंथेटिक ज़िन्दगी ने जो जो छीना है उसमें हमारी लोक समवेदनाएँ,संगीत,बोल-व्यवहार संस्कार सभी सम्मिलित हैं.मेरे बाद की पीढ़ी अपनी विरासत और परम्परा से कितनी जुड़ पाएगी,कह नहीं सकता.शायद ये दु:ख हमारे साथ ही जाएगा.बतकही मुझे अपने गाँव और बचपन में ले गई.
ReplyDeleteममता बहन क्या बताएँ? ढाई से उन्नीस बरस की उमर तक मंदिर में ही बीता है। सुबह की मंगला आरती के बाद और दुपहर बाद महिलाएँ जो गीत और भजन गाती थीं रोज सुनना होता था। सारे सावन और कृष्ण जन्माष्टमी पर तो बात ही कुछ और होती थी। पाँच बरस तक तो सर में खूब लम्बे बाल भी थे। तो वो सब मैयाँ हमें ही कृष्ण बना कर झुला देती थीं।
ReplyDeleteममता जी, आपका हिन्दी ब्लागजगत में अभिनन्दन है। जिस प्रकार से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों और विशेषज्ञताओं वाले लोग हिन्दी चिट्ठाकारी से जुड़ रहे हैं वह हिन्दी के लिये बहुत शुभ संकेत है।
ReplyDeleteआपका यह सोहर (आपका चुनाव) बहुत सरस लगा। ये फोटू भी उतना ही देसी और जड़ों की तरफ़ ले जाने वाला है।
लिखते रहिये। आगे की प्रविष्टियों की प्रतीक्षा रहेगी।
हम भी सपरिवार सुन रहे हैं....
ReplyDeleteगाँव की बहुत सी चीजें याद दिलवा दी आपने, हमने भी कई बढ़ईन, नाईन और कुम्हारिन काकियों का स्नेह पाया है, लाड बरी डाँट खाई है। जब वे हमे डाँटती थी तो माताजी की भी उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। जब दुलारती थी तब मम्मीजी जरूर शिकायत करती थी काकीजी आप बच्चो को बिगाड़िये मत।
ReplyDelete:) एक मोहन काका भी थे/ हैं।
बहुत सी बातें है .. फिर कभी चर्चा होगी। फिलहाल पं. छन्नूलाल जी को सुन लें.. लिकने की वजह से सुनने में डिस्टर्ब हो रहा है। :)
पहले ही लेख में कमाल करने के लिये बधाई।
गाँवोँ मेँ रहने का आनँद मिला नहीँ कभी ..सिर्फ महसूस किया जब जब दादीजी खुर्जा , बुलँदशहर से मिलने आईँ -आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी ममता जी ..लिखती रहीये ..बहुत स्नेह के साथ, .
ReplyDelete-लावण्या
छन्नू लाल मिश्र के गीत के साथ आगाज़ से बेहतर और कोई चीज नही हो सकती. ममता जी आपको साधुवाद. पहले ही पोस्टिंग में आप यादों में खो गयीं और साथ ही पढने वाले भी अपनी अपनी बचपन की स्मृतियों में.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा. आपको बधाई और शुभकामनायें.
बधाई बहना, वाह, मुझे याद आ गया अपना गॉंव और अपने गॉंव के पास का छींद(छोटा खजूर) का पेड़, वो बढ़ई का मकान और चाक पर उसका बैलगाड़ी का चक्का बनाना और फुरसत में कभी कभी मेरे लिए गिल्ली डन्डा बनाना। बहुत खूब
ReplyDeleteMamta jee. aapka blog padh kar apne gaon ki yaad to jaroor aa gai. aapki radio par aawaj sunkar ab aapki lekhni ko padh kar achha laga. shukriya. aapko main bhojpuri gaane ka ek site deta hun. isme kuch gaane bahut achhe hain to kuch chaltau kism ke. bhir bhi man khush ho jaayega. address hai
ReplyDeletehttp://bhojpurimp3.blogspot.com
shukriya.
ममता दीदी आपने तो हमे दिल्ली के ऑफिस से सीधे हमे हमारे गावं पंहुचा दिया | इस गीत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया | आपने जो गवई शब्दों का इस्तेमाल अपने विचारो में किया उसी ने गाँव की याद ताजा कर दी ,इस भागमभाग जिंदगी गाँव के साथ साथ ये शब्द भी छुट गए थे |पुनः आपका शुक्रिया |
ReplyDeleteममता जी,
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आपका स्वागत है. शायद मैं ये बात आपसे बहुत बाद में कह रहा हूँ.पर क्या करूँ, आज पहली बार आपका ये ब्लॉग जो देखा है.
ग्रामीण परिवेश के साँचे में ढले इस पहली पोस्ट के लिये आपको तहे दिल से धन्यवाद. इस तरह की पोस्ट सीधे दिल में उतर जाती है.
-- अजीत.
अरे ममता जी बता नही सकत कि किन यादों में डाल दिया आपने ...... ये सारे विवाह और सोहर वाले गीत मैने ध्यान दिया है कि हर गाँव में थोड़ा अदल बदल कर गाये ही जाते हैं...! कभी कभी आँखें भर आती है....! मेरी माँ गीत इन गीतो की स्पेशलिस्ट हुआ करती थीं और उन्ही से ये धरोहर मेरे हाथ लगी। अब भी जब जमाना डीजे का हो गया है, माँ अपने को इन गीतों को गाने से खुद को नही रोक पाती, लेकिन लंग्स में समस्या के कारण खींच भी नही पाती और जनमदिन हो या शादी मुझे बुला कर शुरू कर देती हैं।
ReplyDeleteशादी में हमारे यहाँ संझा भोर गाया जाता है जो सुबह ४ बजे उठ के महिलाएं अपने पुरखों को नेवता देते हुए गाती हैं। पहले मुझे बहुत बोर लगता था। लेकिन अब लगता है कि कितनी भावनाएं जुड़ी है इस परंपरा में। कब के गये लोगो को सिंबलिकली याद किया जाता है और ईश्वर के समकक्ष रखते हुए उन्हे उतने ही सम्मान से आमंत्रित किया जाता है।
हर अवसर से हर भावना से जुड़े ये लोकगीत बहुत कुछ समेटे हैं अपने आप में।
कभी यूनुस जी के ब्लॉग पर आपके पसंद का गीत छुपा लो यूँ दिल में प्यार गीत सुन कर मन में आया था छाया गीत में मेरे मन की छाया सुनवाने वाली इस शख्स की एक पसंद तो मुझसे मिलती है, लेकिन अब लग रहा है शायद कई पसंद मिल गईं। आप के सुखद जीवन हेतु शुभकामनाएं
kripya iksa translation jrur krein,
ReplyDelete