Monday, June 27, 2011

डायरी 16 जून, जादू के स्‍कूल का आग़ाज़


सोलह जून को जादू पहली बार स्‍कूल गया।

अचानक ऐसा लगने लगा है कि जादू अचानक बड़ा हो गया। अब मां की उंगली छोड़कर चलना उसे अच्‍छा लगने लगा है। चार छह दिन ही तो हुए हैं अभी, लेकिन जादू में बदलाव नज़र आने लगे हैं। वो अपने आप सैंडिल पहनता है। तैयार भी अपने ही होना चाहता है। टेल्‍कम-पाउडर अपने आप लगाने की कोशिश में कई बार 'सफेद-बाबा' बन चुका है। यहां तक कि अब खाना भी ख़ुद ही खाना पसंद करता है। जब जादू को ऐसा करते हुए देखती हूं तो कई बार भाव-विह्वल हो जाती हूं लेकिन अंदर से सिहर भी जाती हूं। कहीं मेरा जादू मुझसे दूर तो नहीं जा रहा है। क्‍या सचमुच बच्‍चे बड़े होकर माता-पिता से दूर हो जाते हैं। अपने आसपास देखती हूं तो डर-सा लगता है।
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जिस दिन जादू पहली बार स्‍कूल जा रहा था, तो मन की  खुशी छलक-छलक पड़ रही थी, पर कोई बड़ा कोना था, जो बहुत विचलित था। मैं परेशान थी कि मेरा नन्‍हा, बेहद मासूम और सलोना जादू इतनी विशाल दुनिया में कैसे अपने नन्‍हे नन्‍हे क़दम बढ़ायेगा। कैसे ख़ुद को एडजेस्‍ट करेगा। नए चेहरे, नए साथी, टीचर, क्‍लास, डिसिप्लिन, समय पर सोना-जागना....क्या इन सबके लायक़ हो गया है मेरा बाल-गोपाल। जो अभी तक अपनी मन-मरज़ी से सोना-जागना सब करता था।

प्‍लेग्रुप की क्‍लास में तीन दिन तक सभी मम्मियां बच्‍चों के साथ बैठीं। पर चौथे दिन बच्‍चों को क्‍लास में अकेला भेजा गया। हम मम्मियां नीचे, बाहर ही रह गयीं। जाते वक्‍त जादू ने जैसे ही चिल्‍लाया, 'मम्‍मा नहीं'....'मम्‍मा आईये' तो आंखें छलक उठीं। और पौना घंटे बाद ही हमें जब क्‍लास में बुलवाया गया, बच्‍चों को खाना खिलाने तो वो नज़ारा कमाल का था। पूरी क्‍लास में सभी बच्‍चे रो रहे थे। ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे। हालांकि हैरत की बात है जादू कम रो रहा था। इस नज़ारे ने मुझे भी थोड़ा रूला दिया, मैं फफक पड़ी। उसे गले लगाकर ख़ूब प्‍यार किया।


आजकल जादू को गोद में लेती हूं, तो उसका मन रहे तो आता है। वरना छिटककर दूर भाग जाता है और चाहता है कि मैं उसके पीछे-पीछे दौड़ूं। हम सारे घर में धमा-चौकड़ी मचाते हैं। विविध-भारती के कार्यक्रम 'सखी-सहेली' में कई बार मैंने ये बात बोली है कि बच्‍चों की परवरिश मां-बाप का कर्त्‍तव्‍य है। उन्‍हें सुख मिलता है और ये एक कड़ी है। बच्‍चों के बड़े होने पर मां-बाप को  बहुत उम्‍मीदें नहीं करनी चाहिए। मैं अकसर 'सखी-सहेली' में ये भी कहती हूं कि कोई भी मां अपने बेटे को किसी के साथ 'शेयर' नहीं करना चाहती, चाहे वो बहू ही क्‍यों ना हो।

लेकिन उस दिन जब जादू पहली बार स्‍कूल गया, तो महसूस हुआ कि अपनी संतान से दूर रहना कितना मुश्किल होता है। अपने बच्‍चे को किसी के साथ शेयर करना कितना नामुमकिन-सा लगता है। जब उसकी अपनी एक अलग दुनिया तैयार होने लगती है, तो मां को अच्‍छा भी लगता है, लेकिन भीतर से वो कितनी बेचैनी होती है। बड़ा अजीब-सा होता है मां का दिल। लग रहा है कि अब जादू बिज़ी होता जाएगा। और उसकी अल्‍हड़ मासूमियत शेड्यूल और डिसिप्लिन में गुम होती चली जाएगी।