Thursday, December 10, 2015

स्‍कूल का 'तमाशा' और 'तमाशा' का स्‍कूल



जिंदगी भी कई बार किस तरह से आइना दिखाती है। पिछले शनिवार को अजीब इत्‍तेफाक हुआ। सुबह जादू के स्‍कूल गए, पैरेन्‍ट-टीचर-मीटिंग में, जिसे ओपन-हाउस भी कहते हैं। उम्‍मीद तो यही थी कि शिकायत सुनने को मिलेगी कि जादू बहुत मस्‍ती करते हैं, He is very naughty but he is good at studies. लेकिन इस बार दो टीचर्स ने एक ही बात कही, nowadays he is very quiet. He does very good behavior. मेरा माथा थोड़ा ठनका। इंग्लिश टीचर ने आश्‍चर्य भी जताया कि आजकल वो बड़ा शांत रहने लगा है। लेकिन मैथ टीचर, जो क्‍लास-टीचर भी है- इस बात से खुश थी कि जादू आजकल शांत बैठने लगा है। पहले उसकी मस्‍ती और शरारतों से पूरी क्‍लास डिस्‍टर्ब होती थी। जादू के साथ दो बच्‍चों का नाम और शामिल था। खुद तो फास्‍ट क्‍लास-वर्क कर लेता था, फिर दूसरों को डिस्‍टर्ब करता था।

दरअसल इसके पहले क्‍लास में शरारत और बाहर दौड़ने पर उसे कई बार छोटी-मोटी सज़ा मिली। जैसे हेड-डाउन करना या किसी कोने में खड़े कर दिये जाना। जबकि जादू को पढ़ाई के लिए हमेशा हर टीचर से स्‍टार और स्‍माइली मिलता रहा है। हर PTM में यही बात सुनने मिली कि पढ़ने में अच्‍छा है इसलिए हम लोग सज़ा वाली बात से ज्‍यादा परेशान नहीं होते थे लेकिन एक बार डायरी में रेड-रिमार्क लिखकर आया। मुद्दा ये था कि बच्‍चा आई-कार्ड से खेलता है और क्‍लास से बाहर वॉश-रूम तक दौड़कर ही जाता है। अपने प्‍लेस से अपने बेस्‍ट-फ्रेन्‍ड के पास बार-बार चला जाता था। इस एक रेड रिमार्क से हम दोनों परेशान-चिंतित। जादू के पापा को ज्‍यादा चिंता। हालांकि मुझे लगातार ये लगता है कि इतने छोटे बच्‍चे मस्‍ती और शरारत तो करेंगी ही........बहरहाल हम लोगों ने जादू को घुट्टी पिलाना शुरू कर दिया--'क्‍लास में अपनी जगह पर बैठो', 'क्‍लास में खेलो मत', 'टीचर की बात ध्‍यान से सुनो' वगैरह वगैरह। शायद जादू ने काफी हद तक हमारी आज्ञा और सलाहों का पालन भी किया। जबकि मुझे लगातार ये गिल्‍ट रहा कि बच्‍चे के साथ ये सब ज्‍यादती है। हम बच्‍चे पर ये सब कह कर प्रेशर डालते हैं और इससे उसका बचपन छिन रहा है। हमारी त्रासदी है कि स्‍कूल के मुताबिक़ हम शुरू से ही बच्‍चे को कल्‍चर में ढालने लगते हैं। तहज़ीब, शिष्‍टाचार का पाठ बहुत जल्‍दी पढ़ाने लगते हैं कि कहीं हमारा बच्‍चा सभ्‍यता और आधुनिकता की सीढ़ी चढ़ने में या 'गुड बॉय' बनने में पीछे ना रह जाए। मध्‍यमवर्गीय सोच, स्‍कूल की संस्‍कृति, पहनावा, पश्चिमीकरण में बिल्‍कुल फिट हो अपना बच्‍चा। दोहरी मानसिकता और दोहरे मानदंड के बीच हमें अकसर अपने मूल संस्‍कारों का गला घोंटना पड़ता है। हम जानते समझते हुए भी अपने बच्‍चे को आधुनकिता की अंधी दौड़ में शामिल होने के गुर पहली क्‍लास क्‍या, नर्सरी से ही सिखाने लगते हैं। फिर भी मेरा मन हमेशा कहता है कि बच्‍चे पर ज़रूरत से ज्‍यादा कल्‍चर, एटीकेट थोपना उनसे उनका बचपन छीनना है। 

बहरहाल... इस PTM में जादू की भूरि-भूरि प्रशंसा सुनकर जी जुड़ा गया। जबकि उनकी साइंस मिस ने ये भी कहा कि मुझे तो हाइपर-एक्टिव बच्‍चे ज्‍यादा पसंद हैं इसलिए जादू उनका फेवरेट है। वो उनकी हर बात एक बार में समझ लेता है और जब वो दूसरी-तीसरी बार समझाती हैं- तो इस बीच जादू खिड़की से बाहर देखता है, पेन्सिल शार्प करता है या अपने आप में मगन हो जाता है। क्‍योंकि टीचर का दूसरी-तीसरी बार बोलना जादू के लिए बेकार है। उसे एक ही बार में पूरी जानकारी मिल जाती है। इस बात से टीचर खुश है। बाक़ी समय वो अपनी दुनिया में मगन है। मैं तो स्‍कूल से निहाल होकर लौटी लेकिन ये क्‍या......

शाम को गये 'तमाशा' देखने। 'तमाशा' ने तो असली तमाशा दिखा गया। मन के कई तार झंकृत कर दिये। दिमाग़ के कई दरवाज़े खोल दिये। इस फिल्‍म ने हम सबकी शख्सियत को बड़ी बारीकी से आइना दिखा दिया। बच्‍चे के जिस मनोविज्ञान को हम कभी जानने की कोशिश भी नहीं करते, वो मनोविज्ञान कितना विशाल है। बच्‍चे के मन का आकाश कितना बड़ा और कितना विस्‍तृत है। उनमें कितनी समझदारी है। फिर भी हम उस पर थोपते हैं सब कुछ। सब कुछ थोपकर अपनी बात मनवा लेते हैं.... खैर 'तमाशा' की विवेचना करने चले तो हमारी ये लेखनी बहुत बड़ी हो जाएगी। इसलिए बस इतना कहना चाहूंगी कि बड़ी बारीकी से हम सबकी जिंदगी के तमाशे को दिखाया गया है इसमें। वेद का किरदार हम सब भी रोज़ अदा करते हैं लेकिन तारा के बारीक जज्‍बात को बहुत कम ही लोग समझ पाते हैं।

इम्तियाज़ अली की 'तमाशा' ने बड़ी खूबसूरती से हम सबके बचपन को ताज़ा किया है... किस्‍सगोई के शौक़ को ताजा किया है। बड़ी समझदारी और कुशलता से ये भी संदेश दिया है कि मत कुचलो बचपन की मासूमियत। बच्‍चों पर अपनी काबलियत को मत थोपो। बच्‍चों को व्‍यावहारिकता, शिष्‍टाचार के फ्रेम में मत क़ैद करो। वरना वो जीती-जागती तस्‍वीर बन जाएंगे। एक ऐसा पुतला जो सपने में भी सॉरी थैंक्‍यू का पाठ पढ़ते नज़र आयेगा। जहां इस बात का तनाव भी है कि अब बड़े होकर उन्‍हें अच्‍छे मैनर सीखने चाहिए। सबसे अहम बात ये है कि अपने बचपन को अपने आप से कभी जुदा ना करो। फिल्‍म 'तमाशा' की तारीफ में क्‍या कहूं.... इस फिल्‍म को देखने के बाद मैंने ये तय किया है कि खुद के बचपन को संभालकर रखूंगी बल्कि नन्‍हे जादू को उड़ने के लिए वृहद आकाश दूंगी। अपनी कल्‍पनाओं को बुनने का स्‍पेस दूंगी। 'गुड बॉय' का भारी-भरकम कोट पहनाकर 'कल्‍चर' और 'एटीकेट' के दायरे में क़ैद नहीं करना है अपने जादू को। उसे बस मस्‍त रहने देना है। 'हाइपर' और 'नॉटी' का टैग जादू के साथ जोड़े रखना है।


  

Saturday, November 28, 2015

नैहर और ससुराल की स्‍मृतियां




ओ मायानगरी मुंबई, तुमने बहुत कुछ दिया है। पूरी जिंदगी दे दी है तुमने। शुक्रगुज़ार हैं तुम्‍हारे।

लेकिन फिर भी ना जाने क्‍या है बचपन वाले उस शहर में कि बार बार अपनी तरफ खींचता है वो शहर। गंगा मैया में प्रदूषण लाख घुल-मिल गया हो, लेकिन उसने अपनी पवित्रता आज भी कायम रखी है। इस बार जब इलाहाबाद गए, तो मन आकुल था गंगा-जमना और सरस्‍वती से मिलने को। इन तीनों बहनों के जल-स्‍पर्श से मन प्रसन्‍नता से लबालब भर गया।


ढलती शाम में जब नौका-विहार किया तो आसमान और जमना के जल के बीच गोलाई में अठखेलियां करता सूरज ज़ेहन में बस गया। डूबते सूरज के साथ  यमुना के पानी में जैसे किसी ने नारंगी रंग घोल दिया हो। जमुना पर बने नए ब्रिज की सैर की कशिश बार-बार बुलाती रही। बड़ा ही भला लगता है वहां बैठना।





लोकनाथ की मलाईदार लस्‍सी में अब भी वही मिठास है। वहां की दही-जलेबी, खस्‍ता दम-आलू, समोसे और चाट देखकर अब भी मुंह में पानी आ जाता है। आनंद भवन लोगों के लिए अभी भी आकर्षण का केंद्र है। आनंद भवन से जुड़ी एक सड़क इलाहाबाद विश्‍व-विद्यालय की ओर जाती है और अभी भी वैसे ही गुले-गुलज़ार है। अभी भी ठिए के सामने खड़े होकर लड़कियां चुरमुरा खाती नज़र आईं।





काफी बदल गया है इलाहाबाद। प्रगति के बहुत सारे सोपान तय किये हैं इलाहाबाद ने। लेकिन उस शहर का मिज़ाज नहीं बदला। लोगों के रहन-सहन की तासीर नहीं बदली। लोगों का अपनापन अब भी कायम है। गली के मोड़ पर खड़े काका, ताऊ या दादा या भैया जैसे आत्‍मीय आपको नसीहत की घुट्टी पिलाने के लिए आज भी तत्‍पर मिल जाएंगे। एक सवाल के जवाब में दस बातों की व्‍याख्‍या ज़रूर कर डालेंगे।


पड़ोसी के घर की रसोई में क्‍या पक रहा है, ये सहज जिज्ञासा आज भी कायम है। भागमभाग के इस युग में भी दफ्तर या अपने गंतव्‍य को जाते हुए लोग आज भी पान की दुकान से बीड़ा या दोहरा मुंह में भरकर ही आगे बढ़ते हैं। मालवीय नगर की संकरी गलियों में भी लोग अपनी कार ज़रूर ले जाएंगे। भले ही उसकी वजह से उन्‍हें ट्रैफिक जाम में कई घंटे बरबाद करने पड़ जाएं। अनियंत्रित, बेतरतीब ट्रैफिक में फंसे लोग....ना तो ट्रैफिक रूल से शिकायत करते हैं ना ही उनका पालन करते हैं। लेकिन वे अपने जीवन से बेहद संतुष्‍ट हैं।



लोकनाथ के ढाल पर भारती भवन लाइब्रेरी आज भी पुराने रंग रोगन में मौजूद है। उसके इर्द गिर्द हरी नमकीन, समोसे वालों की दुकान और तरह तरह के मसालों की गंध बिखरी है आज भी। अब भी हम वहीं से दम-आलू और कचौड़ी के मसाले और हींग वग़ैरह ख़रीदकर मुंबई की अपनी रसोई तक ले आते हैं। हालांकि सिविल लाइंस के इलाक़े में मॉल भी बन गए हैं, बड़े बड़े शोरूम खुल गये हैं। पहनावे पोशाक में भी खूब फर्क आ गया है लेकिन नहीं बदली है वहां की आत्‍मीयता। नहीं बदला है वहां का सुकून। आज भी लोग छत पर बैठकर मूंगफली और अमरूद खाते हैं। आज भी बेटी जब मायके आती है तो अड़ोसी-पड़ोसी छत से झांकते हैं और फिर मिलने चले आते हैं। फुरसत से खूब बतियाते हैं। सवालों की झड़ी लगा देते हैं। बेहद निजी बातें भी वो इतने अधिकार से पूछते हैं कि जिनके बारे में आपने कभी खुद से भी गुफ्तगू ना की हो।



सुकून, प्रेम और स्‍नेह की त्रिवेणी आज भी बहती है इलाहाबाद में। शायद इसलिए अपनी प्रिय मायानगरी, कर्म की नगरी में आकर भी मन का एक सिरा वहीं रह जाता है.... जहां भाई-बहनों के साथ घंटों बैठकें होती हैं। तमाम व्‍यस्‍तता और आधुनिकता के बावजूद आज भी, लाख मना करने पर भी भाभी अपने हाथों से पैरों में महावर लगाकर प्‍यार के रंग से तन-मन भर देती हैं। मायके और ससुराल की यादों से भरा है मन का पिटारा.... जिसमें छलक रहे हैं खुशियों के रंग।



मायका गंगा-जमना किनारे है तो ससुराल नर्मदा तीरे। नर्मदा मैया का सान्निध्‍य कम मिला, लेकिन जब गये भेड़ाघाट तो आसमान की ओर उड़ते पानी के छोटे छोटे कणों को देखते ही रह गये। उपमा से परे..... वर्णन से परे.... फेनिल झाग वाले पानी से... उड़ती बूंदों से इस कदर भीगे कि वो नमी अभी भी महसूस हो रही है मन के आंगन में। इस बार मायके और ससुराल का सफर अदभुत और यादगार हो गया।

Saturday, October 10, 2015

स्‍मृतियों में मां....




आज का ही दिन था वो... शनिवार की उदास मनहूस दोपहर....सुबह से मन विकल था, ईश्‍वर से प्रार्थना कर रहा था....लौट जाए वक्‍त... ठहर जाये उस लम्‍हे पर.... जब मुंबई आयीं थीं मां.... मां फिर से एक बार स्‍वस्‍थ हो जाएं....लेकिन जाने वाले को कोई रोक नहीं सकता।

दोपहर के खाने का वक्‍त था, इलाहाबाद से भईया का फोन आया....'मां नहीं रहीं'....हाथ का निवाला आधे में रूक गया था। थाली यूं ही धरी रह गयी थी। सात महीने के नन्‍हे जादू किलकारी मार-मारकर मेरे आंसू पोंछ रहे थे....मां के अचानक चले जाने पर मन में ये हूक रह गयी काश...थोड़े दिन और रूकतीं.... काश उनकी मौजूदगी में जादू की पहली इलाहाबाद यात्रा हो जाती....काश जादू नानी का ढेर सारा वात्‍सल्‍य और प्‍यार पा लेता....काश जादू नानी का मतलब समझने लगता। ....वे एक खास लोकगीत जादू के लिए गाती थीं। उस लोकगीत की धुन थोड़ा और गूंजती रहती। काश थोड़े आर्शीवचन और दे जातीं....काश जिंदगी के थोड़े और पन्‍ने पढ़ा देतीं। मुश्किलों के कठिन पाठ के मायने समझा देतीं... काश मां थोड़े दिन और रूक जातीं....काश.....उनके अंतिम समय में हमें भी उनका साथ मिल जाता...काश..मेरे इंतज़ार में ठहरी उनकी आंखों की नमी को रोप लेते अपनी आंखों में.... काश मां का साथ थोड़ा और मिल जाता हमें।

चली गयी हैं मां। आसमान में चमकती हैं किसी तारे की तरह। मुश्किल की घड़ी में आज भी अपने आशीषों के साथ पीछे आ खड़ी होती हैं। मुड़ के देखो तो ग़ायब हो जाती हैं।

मैं भी मां बन गयी हूं1 लेकिन मां को याद कर आज भी खुद एक बच्‍ची बन जाती हूं। परेशानी की घड़ी में आज भी मां का वही आंचल ढूंढता है मन। बचपन के दिनों में जहां छुप कर हर कष्‍ट का निवारण हो जाता था। बचपन के उन दिनों को याद कर आज भी मन आर्द्र हो जाता है.... जब मां की एक थपकी से नींंद आती थी। अभी हाल ही की तो बात है जब जादू आने वाला था.. तो न जाने कितनी नसीहतें, ना जाने कितनी जानकारी दिया करती थीं मां फोन पर। जादू के जन्‍म की खबर सुनकर मां की आवाज़ में छलकता हुआ आह्लाद, खुशी, सुख का सागर आज भी मेरे मन में हिलोरें मांगता है। फिर धीरे से आंखों की कोरों से बहने लगता है दरिया की तरह....। आज भी जब इलाहाबाद जाते हैं तो घर के कोने-कोने में मां की छबि दिखायी देती है। अमूर्त रूप में मां नज़र आती हैं। घर के कोने-कोने से उनकी पुकार आज भी सुनायी देती है।

आज ही दिन मेरे पसंदीदा ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने भी इस फानी दुनिया को अलविदा कहा। नमन उन्‍हें भी। अपनी मां को विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में स्‍मृतियों का सागर।  

Saturday, September 5, 2015

जिन्‍होंने सिखाया जीवन का पाठ


यूं तो कुछ खास असवर के लिए कोई एक दिन निर्धारित कर देने से सिर्फ वो दिन ही महत्‍वपूर्ण नहीं हो जाता, कुछ खास अवसर, कुछ खास बातें कुछ खास सीख, हर रोज़ हमारे साथ साए की तरह चलती हैं। आज

शिक्षक दिवस पर अपनी पहली शिक्षिका, अपनी मां की दी हर सीख याद आ रही है। उनका सिखाया जीवन का हर पाठ आज भी मुखाग्र है। मेरे स्‍मृति-पट पर एक और चेहरा बार-बार अंकित हो रहा है। कुछ स्‍मृतियां धूप-छांव की तरह मन के गलियारे में आवाजाही करती हैं।

इलाहाबाद, क्रॉस्‍थवेट गर्ल्स कॉलेज की मिस पूर्णिमा चतुर्वेदी आज बहुत याद आ रही हैं। वो हमें संस्‍कृत पढ़ाती थीं। उन्‍होंने अपनी शिक्षा के ज़रिए जीवन के तमाम पाठ पढ़ाए। उन्‍होंने जीवन की शिक्षा के साथ-साथ जीवन मूल्‍यों की भी शिक्षा दी।

वो शुद्ध शब्‍द और उत्‍कृष्‍ट भाषा पर बहुत ज़ोर देती थीं। संस्‍कृत का उच्‍चारण या संधि-विच्‍छेद अगर ज़रा-भी इधर-उधर हुआ तो बहुत डांटती भी थीं। उनसे हम सब छात्राएं डरती भी थीं, उन्‍हें खूब प्‍यार करती थीं। उनका आदर भी करती थीं। यहां तक कि उन्‍हीं की तरह भाव-भं‍गिमा भी बनाती थीं। उन्‍हीं की तरह चलाने की भी कोशिश करती थीं। आज सोचकर हंसी आती है, कि किस तरह घर आकर हम, कई बार आइने के सामने, पूर्णिमा मिस बनकर उनकी हू-ब-हू नकल करते थे। आज जब मैं माइक्रोफ़ोन के सामने बोलती हूं, भूले से कभी उच्‍चारण दोष हो जाए या कहीं टंग-स्लिप कर जाए, तो उनका सख्‍त चेहरा सामने आ खड़ा होता है। सच कहें तो एक-एक शब्‍द शुद्ध और स्‍पष्‍ट बोलना उन्‍होंने ही सिखाया।

अब वो पंक्तियां बरबस ही कंप्‍यूटर के स्‍क्रीन पर सामने आ गयी हैं, 'गुरू गोबिंद दोऊ खड़ें, काके लागू पांय, बलिहारी गुरू आपने, जिन गोबिंद दियो बताए'। आज अवसर बड़ा सुखद है। दोनों को एक साथ नमन करें। कंस रूपी बुराई का नाश जब श्रीकृष्‍ण ने किया तो ये कहां सोचा होगा, आने वाली पीढियों में फिर-फिर जन्‍म लेंगे कंस....जन्‍माष्‍टमी पर आज बंसी बजैया के नटखट बाल-रूप को याद करते हैं। वो रूप जिसने दिया प्रेम और स्‍नेह का संदेश।

बहरहाल...स्‍मृति के गलियारों में आज मेरे साथ हैं, मेरी पहली गुरू मेरी मां, पूर्णिमा चतुर्वेदी मिस और मेरे देवेंद्र भैया- जिन्‍होंने मुझे लिखना सिखाया। सभी को शिक्षक-दिवस और जन्‍माष्‍टमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं। 


Tuesday, July 28, 2015

पााखी में प्रकाशित कहानी 'फैमिली ट्री'



'पाखी' के जुलाई-2015 अंक में प्रकाशित कहानी 'फैमिली-ट्री'...
उन पाठकों और आत्‍मीयों के लिए, जिन्‍हें अंक उपलब्‍ध नहीं हो सका।                
 --ममता सिंह।


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दरवाज़े के पास पहुँचकर याद आया मनु की ड्रॉइंग-बुक ख़रीदना भूल गयी। मनु को लेकर फिर जाना पड़ेगा। कौन जाए टेन्‍थ फ्लोर से नीचे......अमन से कहू्ंगी, वही ले आयेंगे। हालांकि मनु नाराज़ तो ज़रूर होगा.... सोचते हुए श्रेया लिफ्ट से बाहर आ गयी। दरवाज़ा खुलते ही मनु परदे के पीछे छिप जाता है, श्रेया ढूंढने का अभिनय करती है। मनु उसकी गोद में बैठता है, गले लगता है और फिर शुरू होता है श्रेया के सवालों का टेप-रिकॉर्डर-'बेटा, टिफिन फिनिश किया, स्‍कूल में आज टीचर ने क्‍या पढ़ाया, कौन सी एक्टिविटी हुई, डांस या ड्रॉइंग'। फिर श्रेया लंबी सांसें भरती हुई किचन में चली जाती है। मशीन की तरह मनु का दूध तैयार करना, उसका होम-वर्क करवाना, उसे पार्क में ले जाना और फिर डिनर तैयार करना, अमन के घर लौटते ही उन्‍हें दिन भर का ब्‍यौरा देना, जल्‍दी-जल्‍दी घर के सारे काम निपटाकर मनु को सुलाकर यंत्रवत् बिस्‍तर पर पड़ जाना, पड़ते ही गहरी नींद में सो जाना और सुबह के लिए बचे हुए काम सपने में निपटाना...यही है श्रेया का रूटीन।


लेकिन आज का दिन काफी उलट है। घर पर अमन पहले से मौजूद हैं, फिर भी मनु का 'मूड ऑफ़' है। अमन अपने काम में तल्लीन हैं। उनकी उंगलियाँ कंप्यूटर पर ऐसे चल रही हैं, जैसे कैसियो-की-बोर्ड पर किसी गाने की धुन बजा रहे हों और मनु सोफ़े पर चुपचाप बैठा है।


'क्‍या हुआ बेटा’, पूछते ही मोटे-मोटे आंसू झरने लगे। श्रेया ने मनु को गोद में लिया तो वो रोते हुए बोला-'कल से मैं काकी के यहां नहीं जाऊंगा। पापा से कहना, वो ऑफिस से जल्‍दी नहीं आयें, उन्‍होंने मुझे डांटा, काकी ने भी डांटा, सब लोग मुझे डांटते हैं, यहां तक कि टीचर ने भी डांटा। आप रोज़ बोलती हो, ऑफिस से जल्‍दी आओगी, ख़ूब सारी छुट्टी लेकर दिन भर मेरे साथ रहोगी लेकिन आप झूठ बोलती हो। आप बार-बार अपना प्रॉमिस तोड़ती हो। आपने फाइव डेज़ बोला कि आप जल्‍दी आओगी, पर आप नहीं आयीं। पार्थ की मम्मा उसे रोज़ पार्क ले जाती है। आपने तो मुझे आज फ़ोन भी नहीं किया। जब मैं काकी के यहां रो रहा था, तो मैंने आपको बुलाया, मम्‍मा-मम्‍मा.... तो आपने क्‍यों नहीं सुना। आप आयीं क्‍यों नहीं'। ‘..............'बे...........टा... मैं तो ऑफिस में थी। आपने काकी से फोन करने के लिए बोला होता ना। कल से आ जाऊंगी जल्‍दी। प्रॉमिस।' मनु श्रेया के सीने से चिपक कर देर तक सुबकता रहा। श्रेया की आंखों में सुरमई बादल छा गये और नन्‍हीं नन्‍हीं बूँदें गालों पर ढुलक आईं।  'मेरा बेटा इतना बड़ा हो गया है, इतना जज्‍़बाती?....बेटा लेकिन हुआ क्‍या, जो आप मम्‍मा से इतने नाराज़ हो।'
-'शिवाली ने मुझे मारा तो मैंने भी उसे मारा। वो मुझे रोज़ मारती है'
-'लेकिन वो तो आपकी बेस्‍ट-फ्रैंड है ना'
-'हां, लेकिन वो मारती है, फिर खेलती है, आज मैंने भी उसे चटाक से मारा, फिर काकी ने भी मुझे मारा और डांटा भी। शिवाली को मैं अपने सारे खिलौने दे देता हूं। फिर भी वो मुझसे कट्टी लेती है। और फिर डांट भी खिलवाती है’।
-'शिवाली को भी तो मार पड़ी होगी ना। कोई बात नहीं, काकी बड़ी हैं। धीरे से मार दिया होगा। प्‍यार भी तो करती हैं वो।'
-'नहीं, वो मुझे ज़ीरो प्‍यार करती हैं। शिवाली को हंड्रेड करती हैं। वो मराठी है ना इसलिए'
.....'मराठी? बेटा आप कैसी बात कर रहे हो'
नन्‍हा मनु अभी से जाति-पाति की बातें सीख रहा है। श्रेया के गले में जैसे कुछ अटक गया हो।
-'मनु, ये मराठी वाली बात आपने किससे सुनी और जानी'
-'वो राज भैया है ना, वो कह रहा था कि काकी मराठी हैं। इसलिए शिवाली और अदिति को ज्‍यादा लाड़-प्‍यार करती हैं। दोनों मराठी में बोलते हैं ना इसलिए। मैं अब काकी के घर नहीं जाऊंगा। मुझे आप बेबी-सिटिंग में डाल दो'
-'काकी का घर ही तो बेबी-सिटिंग है बेटा'
-......'नहीं, बेबी-सिटिंग घर की तरह नहीं होता। वहां बहुत सारे बच्‍चे होते हैं। वहां खूब सारे खिलौने खेलने को मिलते हैं। वीडियो गेम्‍स होते हैं। मैंने काग़ज़ की इतनी सुंदर बोट बनायी थी, पहाड़-पौधे-फूल, छोटा-सा हाउस और प्‍ले-ग्राउंड बनाया था, पूरा ड्रॉइंग पेपर काकी ने कचरे में फेंक दिया।'

श्रेया बहुत देर तक बर्फ बनी बैठी रही। बच्‍चे के प्रति अपराध-बोध से उसका मन भर आया था। अमन की आवाज़ ने तंद्रा तोड़ी। 'यूं सिर पकड़कर क्‍यों बैठी हो, बच्‍चे की बातों को ज्‍यादा तूल मत दिया करो, ऐसे करोगी तो मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। रिलैक्स'
..'तुम्‍हें पता है , क्‍या हुआ?'
'हां मैं सब सुन रहा था, तुम्‍हें क्‍या लगा, मैं अपने काम में बिज़ी हूं? मेरा भी मन काम में नहीं लग रहा था ये सब सुनकर, लेकिन वर्किंग-कपल के लिए पैरेन्टिंग थोड़ा मुश्किल तो होता ही है ना डार्लिंग! बड़े शहरों के ज्‍यादातर बच्‍चे बेबी-सिटिंग में पलते हैं। मनु कोई अनोखा नहीं है। थोड़े दिन में आदत पड़ जाएगी, मनु की भी और तुम्‍हारी भी।'

अमन की आवाज़ घने जंगल में होती किसी बारिश की तरह लग रही थी।  जैसे एक लय-सुर में गिरी जा रही हों बूँदें। जैसे पहाड़ों पर बसे घने जंगलों में तेज़ बारिश में, बोलने वाले की आवाज़ बहुत मद्धम सुनाई पड़ती है। इसी तरह अस्‍फुट-सा लग रहा था अमन का बोलना। श्रेया के मन में इस समय चिंता के मेघ छाए हैं। ये जज्‍़बात की ऐसी घटाएं हैं जो ना बरस रही हैं, ना छंट रही हैं मन के आसमान से।  

आज भोर से ही मूसलाधार बारिश हो रही है। श्रेया का मन हुआ, अमन का हाथ पकड़ दौड़कर जाए। सामने वाले बड़े-से ग्राउंड में खूब भीगे। खूब छापक-छैया खेले इस झमाझम बारिश में। लेकिन इस रूमानी ख्‍याल के साथ ही ऑफिस याद आ गया। बॉस का ठूँठ जैसा सख्‍त चेहरा और साथ में कामिनी और मिसेज़ अडावटकर की तंज़ करती नज़रें। ...'देखा ये आज फिर लेट आयी। और बॉस ने इसे ना कुछ बोला, ना मेमो थमाया। हम होते तो हमारा रेड मार्क ज़रूर हो जाता, क्‍या ऐश हैं इसके, अपने हुस्न से सबको रिझा लेती है ये। हुंह...'

श्रेया के हाथ और फुर्ती से चलने लगे। जल्‍दी-जल्‍दी अमन और मनु का टिफिन तैयार किया। अपना टिफिन और पानी की बॉटल बैग में रखी। बहुत देर तक बस स्‍टॉप पर खड़ी रही, मनु की बस नहीं आयी। ...'क्‍या बात है अभी तक बस नहीं आई’, सोचते हुए पर्स से मोबाइल निकाला, एक घंटे पहले स्‍कूल से आया मैसेज पड़ा था--  'रेनी डे, स्‍कूल क्‍लोज्‍ड टुडे'। आज फिर मनु को काकी के यहां दिन भर रहना पड़ेगा। आज फिर शाम को उसकी तमाम शिकायतें सुननी होंगी।...'काकी खिलौने नहीं खेलने देतीं, जबर्दस्‍ती सुलाती हैं।  कहती हैं, ..आवाज़ नहीं करने का, जास्‍ती मस्‍ती नहीं करने का।'....उफ़ मनु और घर की परेशानियां बढ़ती ही जा रही हैं। दोहरी-तिहरी जिम्‍मेदारियां निभाते-निभाते वो पस्‍त होने लगी है।

ऑफिस में आज बहुत काम है, लेकिन कुछ काम पेन्डिंग में डालकर श्रेया जल्‍दी निकल पड़ी। और भी बहुत सारे लोग जल्‍दी निकले। बारिश आज क़हर ढा रही है। उफ़...इतनी डरावनी बारिश...सुनने में आया है कि कहीं बादल फट गये हैं। सेन्‍ट्रल और हार्बर लाइन की लोकल ट्रेन बंद हो गयी हैं। वेस्‍टर्न की स्‍लो चल रही हैं। 'हे भगवान, स्‍लो लोकल चलती रहे बंद ना हो। मुझे 5:10 की लोकल किसी भी तरह मिल जाए। मेरा मनु इंतज़ार कर रहा होगा। आज अभी ही अंधेरा-सा छाने लगा है।

सड़कों पर घुटने तक पानी भरा है। एक भी खाली टैक्‍सी नहीं दिख रही। कुछ लोगों की कारें पानी में ठप्‍प हो गयी हैं। लोग पानी में ही पैदल चल पड़े हैं। श्रेया ने पैदल चलने के लिए दुपट्टे को गले और कमर में कस लिया। सलवार थोड़ी ऊँची कर ली। देखा मिसेज़ अडावटकर, कामिनी और साथ में सुहाना भी चली जा रही थी। श्रेया ने सोचा चलो सुहाना का साथ अच्‍छा रहेगा। लेकिन उम्‍मीद के विपरीत कामिनी और मिसेज़ अडावटकर भी बड़ी आत्‍मीय रहीं। ऑफिस में तो जैसे खा जाने वाली नज़रों से देखती हैं पर दफ्तर के बाहर इन लोगों का अलग ही रूप देखा....हेल्पिंग और सेन्सिटिव। तीनों महिलाएं रास्‍ते भर कुछ ना कुछ बोलती रहीं। गंदले पानी में पैदल चलना श्रेया के लिए आसान हो गया। वरना इतनी उबकाई-सी आ रही थी कि वो शायद आधे रास्‍ते से ही लौट जाती। इनकी बातों के बावजूद उसकी आंखों के सामने मनु का बेसब्री से इंतज़ार करता चेहरा है। श्रेया इनकी बातें सुन ज़रूर रही है। लेकिन लगातार यही सोच रही है कि किसी तरह 5:10 की भाइंदर लोकल मिल जाए।

चर्चगेट स्‍टेशन पर इतनी भीड़ मानो पूरा शहर प्‍लेटफार्मों पर समाया हो। अनाउंसमेन्‍ट हो रहा था, ट्रैक पर जल-भराव के कारण फास्‍ट गाडियां बंद हैं। पांच बज रहे हैं, पर इंडीकेटर पर 4:20 की स्‍लो लोकल लगी है। प्‍लेटफार्म नंबर पांच से आउटर की ओर नज़र डाली तो देखा, एक के पीछे एक ट्रेनें खड़ी हैं। गाडियां रूकी हैं फिर भी लोग बैठे हैं। इस इंतज़ार में कि ट्रेन चलेगी और गंतव्‍य तक पहुंचेंगे। श्रेया चुपचाप उन महिलाओं के साथ तीन नंबर प्‍लेटफार्म पर लगी विरार स्‍लो लोकल में बैठ गयी। उसे मिली फोर्थ सीट यानी लटककर बैठना।

एनाउंसमेन्‍ट हुआ और ट्रेन चल पड़ी। औरतों ने 'गणपति बप्पा मोरिया' का जयकारा लगाया। इतनी भीड़ कि महिलाएं एक-दूसरे पर गिरी जा रही हैं। नियमित रूप से ग्रुप में चलने वाली महिलाओं ने अंत्याक्षरी खेलना शुरू कर दिया है। बैठी हुई कुछ औरतें रोज़ की तरह गंवारफली तोड़ने लगीं और मटर छीलने लगीं। भेल-सींगदाने बिकने लगे। ईयरिंग, हेयरक्लिप, रूमाल बेचने वालियों ने अपनी बास्‍केट औरतों के हवाले किये और इत्‍मीनान से बाहर की ओर बैठ गयीं। 'पहिला पसंद कन्‍ने का, फिर मेरे को आवाज़ देने का, भोत (बहुत) गर्दी है।'  ये मुंबई लोकल ट्रेन के लेडीज़ कंपार्टमेन्‍ट की खासियत है कि रसोई, ख़रीददारी, ऊँघना, बतियाना सब निपट जाता है।

क़हर ढाने वाली बारिश अभी भी जारी है। ट्रेन में सवार लोग गरमी और उमस से बेहाल हैं। रेल की पटरियों के किनारे-किनारे पानी जमा हो गया है जो अब पटरियों पर आ रहा है। एनाउंसमेन्‍ट हुआ कि आगे पटरियों पर पानी भर जाने से गाडियां नहीं चल पा रही हैं। श्रेया का मन बेचैन हो उठा। अब क्‍या होगा। मनु कैसे रहेगा। मोबाइल नेटवर्क जाम है। अमन से भी संपर्क नहीं हो पा रहा है। रोज़ की तरह व्‍हाट्स-अप पर दोनों ने एक-दूसरे को मैसेज किया था, 'ऑन द वे'। पर अब ना नेट-कनेक्शन ना संपर्क।

-'काकी मेरी मम्‍मा कब आएगी'.....
-'आती होगी’।
-'लेकिन अब तो रात हो गयी, बारिश भी हो रही है, क्‍या भीग कर आएगी मेरी मम्‍मा? पापा भी नहीं आए। वो तो आज जल्‍दी आने वाले थे'
-'ये ले, अपनी गाड़ी ले। और ये बिल्डिंग सेट। खेल थोड़ी देर। अभी आ जाएगी मम्‍मा'
तभी मोबाइल बजा। काकी ने हैलो कहा, 'ट्रेन मुंबई सेन्‍ट्रल पर रूक गयी है'। फोन कट गया। उसके बाद इधर से काकी ने कई बार फोन ट्राय किया उधर से श्रेया ने। पर संपर्क नहीं हो पाया।
-'बेटू तेरी मम्‍मा शायद नहीं आ पायेगी'....
मनु रूआंसा चेहरा लिए अपने आँसुओं को ज़ब्त करता पूछ रहा था--'क्‍यों नहीं आ पाएगी मम्‍मा'
-'पाउस पड़ला'...
-'पाउस क्‍या होता है'?
'बारिश समझता है ना, पानी गिर रहा है। वो देख विन्‍डो से.....बाहर कितना तेज़ बारिश है....बारिश के कारण गाडियां बंद हो गयी हैं। वो गाड़ी में फंस गयी है। मनु की आंखों के सामने चित्र कौंध गया जो उसने डीवीडी में देखा था। बहेलिये ने जाल बिछाया है, दाना डाला है और सारे कबूतर एक साथ फंस गये हैं। मनु सोचता है, ट्रेन में कोई जाल लेकर आया होगा और मम्‍मा का पैर उसमें फंस गया होगा। पर मेरी मम्‍मा तो बहुत हिम्मती है। बहुत स्‍ट्रॉन्‍ग है। वो जल्‍दी ही अपना पैर जाल से निकालकर आ जाएगी।
-'काकी, मम्‍मा ट्रेन में से निकल गयी कि अभी भी फंसी होगी? फोन आया मम्‍मा का?'
-'बेटू पटरी पर पानी भर गया है, तेरी मम्‍मा जिस गाड़ी में बैठी है, वो बंद हो गयी है, इसलिए मम्‍मी नहीं आ पाएगी। बारिश बंद होगी, गाड़ी चलेगी, तभी आएगी वो'
-'तो क्‍या मम्‍मा आज ट्रेन में ही सो जाएगी?
-'अब मेरे कू क्‍या मालूम रे            '
- 'लेकिन काकी, मेरी मम्‍मा को मेरे बिना नींद नहीं आती, एक दिन वो पापा से बोल रही थी...और मैं कहां रहूँगा'? 
-'तू इधर ही रहेगा। काकी के पास'
-'लेकिन शिवाली तो चली गयी। उसकी मम्मा की ट्रेन क्‍यों नहीं बंद हुई?'
-'बेटू तू कोश्‍चन बहुत पूछता है। इतना नहीं पूछने का'। काए माहिती, लहान पोरगा आहे कि आज़ोबा (क्‍या पता, ये बच्‍चा है या दादा)

मनु मायूस हो चुप हो गया। टिंग टॉन्‍ग। बेल बजी। मनु दरवाज़े की ओर दौड़ा। मम्‍मा आ गयीं। पापा आ गये। सामने दूध वाला खड़ा था। 'काका, हे घ्‍या। उद्या दूध चा टैंकर नाहीं येणार। म्‍हणून उद्या दूध मिळणार नाहीं।
(ये लो, कल दूध का टैंकर नहीं आयेगा, इसलिए दूध नहीं मिलेगा)
अज़ून एक पाकेट द्या (एक पैकेट और दे दो ना')
'नहीं काका, सबको देने का है'
'समझ गया। अब तू बाकी दूध जास्‍ती पैसे में बेचेगा। स्‍साला...'

मुंबई पूरी रात जागती है। रात के किसी भी प्रहर खिड़की खोली जाए तो गाड़ियों की पीं-पों ज़रूर सुनायी देती है। लेकिन आज बिजली कड़कने और अनवरत जोरदार बारिश की आवाज़ के अलावा कोई आवाज़ नहीं। न्‍यूज़ चैनल सिर्फ बरसात की खबरों से भरे पड़े हैं। पूरी मुंबई जलमग्‍न है। बहुत सारी कारें, टैक्सियां, बसें और बाइकें पानी में डूबी पड़ी हैं। कुछ लोग जिन्‍होंने पैदल चलकर घर पहुंचने का जोखिम उठाया, उनमें से कुछ तो रास्‍ते में हैं, कुछ लोगों ने कहीं पड़ाव ले लिया और कुछ लोग नाले में पैर पड़ने से तेज़ बहाव में बह गये। टी.वी. की ये ख़बरें मनु भी देख रहा है और काकी से सवालों की बौछार कर रहा है। मासूम मन में डर की लहरें भी उठ रही हैं। कहीं इसी प्रॉब्‍लम में मेरे मम्‍मा-पापा भी फंस गये तो क्‍या होगा। कहीं 'बैड-मैन' ना आए जाए। इतनी रात... मेरी मम्‍मा अकेली होगी। मम्‍मा कहती है, रात में अकेले घर से निकलो तो 'बैड-मैन' पकड़ लेता है। बाप रे, मम्‍मा को ठंड लग रही होगी। भूख भी तो लग रही होगी। मम्‍मा को कैसे फोन करूँ। काकी तो देगी नहीं अपना मोबाइल। पापा-मम्‍मा अगर दोनों साथ में रहें तो मुझे टेन्‍शन नहीं होगा बाबा। मनु के मासूम मन में तूफ़ान-सा मचा है। वो समझ नहीं पा रहा है कि क्‍या करे।
'बेटू तू सोचता भी बहुत है, बोलता भी बहुत है.... सगड़े मूळे झोपले, चल पटकन झोप'(सब बच्‍चे सो गये,तू भी जल्‍दी सो जा)  
मनु मन ही मन दोहराता है--'पटकन झोप' (जल्‍दी सो जा) । और खाना खाते वक्‍त बोलना है...'मांडी घळायचा' (पालथी मोड़कर बैठो)। पता नहीं काकी इस तरह क्‍यों बोलती हैं।
रात के ग्‍यारह बज गये हैं। काका टी.वी. चैनल बदल रहे हैं। -'काका लायन बहुत ताक़तवर होता है ना, आपको पता है लायन सौ किलोमीटर की स्‍पीड से दौड़ता है'.... काका ने कोई जवाब नहीं दिया। 'काका मेरी मम्‍मा कहती हैं मिल्‍क पीने से बॉडी में बहुत ताक़त आती है। मैं तो बोर्नवीटा डालकर एक ग्‍लास मिल्‍क पीता हूं। क्‍या लायन भी मिल्‍क पीता है?' कोई उत्तर ना पाकर मनु ने सवाल दोहराया। काका के ख़र्राटे की आवाज़ आने लगी थी।

'बेटू तू अब सो जा। देख तेरे काका भी सो गये हैं'
'काकी मेरा चादर सिकुड़कर बॉल बन गया है। और ज़मीन एकदम चिल्‍ड है। जैसे यहां पर आइस-वॉटर गिर गया हो।'
काकी ने चादर ठीक कर दिया। मनु को बेड पर आराम से मां के हाथ पर सिर रखकर सोने की आदत है। पर थके मनु की आंखें झपने लगी हैं। बार बार अपना पैर और हाथ उठाता है। अस्‍फुट स्‍वरों में म...म्‍मा....बेड पर सुलाओ ना, ठंड लग रही है। मम्‍मा, पैर दर्द हो रहा है। पैर में तेल से मसाज करो ना।' अपना पैर मम्‍मा के ऊपर रखने के लिए हवा में उठाता है और 'ठक' से ज़मीन पर। हल्‍की-सी आयी झपकी टूट जाती है। नाइट-बल्‍ब की मद्धम रोशनी कमरे में बिखरी है। टकटकी बांधे छत की ओर मनु देखता है। पंखे की परछाईं छत पर पड़ रही है। पंखे में उसे तरह-तरह की आकृतियां नज़र आ रही हैं। डर के मारे मनु कस के मुट्ठी भींच कर खुद को अपने भीतर सिकोड़ लेता है। ज़बर्दस्‍ती आंखें मूंदने की कोशिश कर रहा है। आंखें बंद करते ही सामने मम्‍मा-पापा का चेहरा। मम्‍मा ने एक दिन ग़ुस्‍से में कहा था, 'तुम बाप-बेटे इतना तंग करते हो, एक दिन तुम दोनों को छोड़कर मैं कहीं दूर चली जाऊंगी'। कहीं मम्‍मा सच में मुझे छोड़कर तो नहीं चली गयी।... काकी कह रही थीं कि ट्रेन चलेगी और मम्‍मा आएगी। लेकिन कब चलेगी ट्रेन? कब आएगी मम्‍मा? हो सकता है मम्‍मा आकर बाहर खड़ी हो। कब आयेगी मम्‍मा। बेल ना बजा रही हो कि मेरी नींद खुल जाएगी क्‍योंकि खाने वाली आंटी को मम्‍मा बेल बजाने से मना करती है। ‘बेल मत बजाना, मनु की नींद खुल जाएगी’। काकी (बेबी-सिटिंग) के घर में रहना मनु के लिए सज़ा जैसा है।

अचानक मनु उठा, धीरे से दरवाज़ा खोला, धीरे-धीरे बिल्डिंग के गेट की ओर क़दम बढ़ाने लगा। 'अरे वाह, यहां तो बहुत सारा पानी है।' ...छप--छपाक...छपाक। ठंडे पानी से भीतर तक सिहर गया मनु। लेकिन अगले ही पल सिहरन ख़त्‍म हो गयी और उसे रोमांच होने लगा। ...वाह.. यहां तो स्‍वीमिंग भी कर सकता हूं। पत्‍थर की बनी बेंच पर वॉचमैन मस्त ख़र्राटे ले रहा है। कई अख़बारों को जोड़कर चादर की तरह बिछा रखा है। मनु ने लटकते हुए अख़बार का टुकड़ा धीरे-से फाड़ा और नाव बनाकर तैरा दी। उलट-पुलट होकर भीगकर नाव डूब गयी। .....अरे बाप रे, कीड़ा....अपने पैर को उसने जैसे हवा में उठा लिया। हाथ तलवे तक ले जाकर छूकर देखा, तो पाया कि पानी में तैरता पॉलिथीन उसके हाथ में फंस गया, जिसे वो कीड़ा समझ बैठा था। पॉलिथीन की बॉल बनाकर फेंकी, जो दीवार के पास जा गिरी। तभी ज़ोर से 'शू' आयी। किनारे की ओर जाकर 'शू' की। 'शू' पानी में मिल गयी। इतनी चिंता और फिक्र में भी नन्‍हे मनु को ज़ोर से हंसी आयी और गाना गाने लगा--'वॉव, आज ब्‍लू है पानी-पानी'

'कौन है'...वॉचमैन करवट बदलकर बुदबुदाया। 'लगता है फर्स्‍ट फ्लोर वाला बच्‍चा है।  रोज़ रात का नाटक है उसका। क्‍या मालूम क्‍यों रोता है स्‍साला। रात को सोने का। रोने-गाने का नईं'

बारिश का शोर अब बूंदा-बांदी में बदल चुका है। मनु के लिए सबसे ज़्यादा खुशी का मौक़ा है, नीचे भी पानी, ऊपर भी पानी। आज क्लाउड का सारा पानी नीचे आ गया है, फिर भी लगता है क्‍लाउड में पानी ख़त्‍म नहीं हो रहा है। क्‍लाउड ने इत्‍ता सारा पानी कहां रखा होगा। आने दो मम्‍मा को, उनसे कहूँगा, एक दिन मुझे क्‍लाउड में ले चलो। मुझे देखना है, वहां पर कितना पानी है। खूब खेलूंगा, मज्‍ज़ा आयेगा। तभी ज़ोर से बिजली कड़की, रोशनी से पूरी सड़क और बिल्डिंगें जगमगा उठीं। मनु के मुंह से ज़ोरदार चीख़ निकली। मारे डर के उसका बैलेन्‍स बिगड़ा और पानी में ही गिर गया। नाक में पानी जाते ही उसे घुटन सी महसूस हुई। बिजली ग़ायब, फिर अंधेरा। लैंप-पोस्‍ट की मद्धम रोशनी में दूर परछाईं सी दिखी। मनु घबरा कर रोने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा है कि पानी में खेलते-खेलते वो कहां चला आया है।

चिड़ियों की चहचहाहट बेरंग फिज़ां में रंग घोलने लगी है। जैसे मनहूस रात के बाद खूबसूरत भोर हो रही हो। एक चिड़िया बादलों को चीरती हुई उड़ गयी जैसे कोई रॉकेट। बारिश थम चुकी है। सड़क पर पानी भी अब कम हो चुका है। एकाध सफ़ाई-कर्मचारी साफ़-सफाई कर रहा है। पेड़ों की फुनगियों पर चिड़ियों का फुदकना शुरू हो गया है। रात की उदासी ढल रही है। भोर के उजास में चिड़ियों का गान फिज़ां में शहनाई के सुर घोल रहा है। चिड़ियों का एक जोड़ा मुंडेर पर आ बैठा है। चूं-चूं करती ये चिडियां जैसे मनु से कुछ कह रही हों। मनु दौड़ पड़ा उनके पीछे। 'ओ स्‍पैरो, ज़रा रुको तो...मेरी मम्‍मा को कहीं देखा है क्‍या? अभी तक वो आयी नहीं। वही मम्‍मा, जो सुबह सुबह रोज़ तुम्‍हें दाना खिलाती हैं। ओफ्फो, तुम लोग मेरी मम्‍मा को पहचानती हो ना? आज तुम्‍हें दाना खिलाया क्‍या?'

भोर के उजास के साथ काकी की नींद खुली, हॉल में आईं तो देखा, मनु बिस्‍तर से नदारद। टॉयलेट-बाथरूम में देखा....मनु, मनु… किधर है। सुबह सुबह छिपा-छिपी खेल रहा है। उफ़ लड़का है या मुसीबत। एक धपाका लगाने का उसको। काकी की नज़र दरवाज़े की तरफ़ गयी। दरवाज़े की कुंडी खुली है। काकी सकते में आ गयीं। बाहर की ओर भागीं। बिल्डिंग के गेट तक देख आयीं। कम्‍पाउन्‍ड में पानी उतर चुका है। सड़कें भी अब नज़र आने लगी हैं। बिल्डिंग के चारों ओर ढूंढ आयीं, गेट के बाहर निकलीं। इधर-उधर नज़र दौड़ाई, मनु कहीं नज़र नहीं आया। 'हे मुळगा कुठे गेला। हे गणपति बप्‍पा। मैं इसकी मम्‍मी को क्‍या जवाब दूँगी'। कांपते हाथों से काकी ने श्रेया को फोन लगाया। -'काकी ऑटो में हूं, दस मिनिट में पहुँचूंगी, गाडियां चल पड़ी हैं'

मनु नहीं मिल रहा है, ये ख़बर सुनते ही श्रेया जैसे ग़श खाकर गिर जाएगी। आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया। उसने फौरन अमन को फोन किया। अमन, श्रेया, काकी, काका, अड़ोसी-पड़ोसी... सब इकट्ठे हो गये। मनु का कहीं पता नहीं चल रहा है। श्रेया ने पर्स से फोटो निकाली। थाने में लंबी लाइन है। लोग खोए हुए अपनों की रिपोर्ट लिखवाने की जल्‍दी में हैं।


श्रेया-अमन के जितने जान-पहचान के लोग थे, सबको फोन किया गया, SMS किए। व्‍हाट्स-अप पर मैसेज किया। श्रेया और अमन भूखे-प्‍यासे, पपड़ाए होंठ लिए, बारिश की चिपचिपाती-उमस भरी दुपहरिया में इधर-उधर भागते रहे। कोई अंदाज़ा नहीं लगा पा रहा है कि मनु कहां ग़ायब हुआ है। श्रेया का मन कुविचारों का बीहड़ जंगल बन गया है। किसी ने किडनैप तो नहीं कर लिया। कहीं वो दरवाज़ा खोलकर निकला हो, हमें ढूंढने। चलते-चलते कहीं मैन-होल में तो नहीं गिर गया हो। सिहर उठी श्रेया। श्रेया के मन में..और भी तरह तरह के बुरे ख्‍याल आ रहे हैं। रो-रोकर पागल सी हुई जा रही है। अमन ऊपर-ऊपर उसे धीरज बंधा रहे हैं, पर अंदर से खुद टूट रहे हैं। इधर-उधर भटकते हुए ये छठी-सातवीं बार हुआ कि किसी बच्‍चे के पीछे श्रेया भागी और चिल्‍लायी, 'मनु-मनु'। नज़दीक जाकर देखा तो वो बच्‍चा कोई और निकला। हर आते-जाते राहगीर से दोनों पूछ चुके हैं, आसपास जान-पहचान के जितने डॉक्‍टर, अस्‍पताल, नर्सिंग-होम थे, सब जगह छानबीन कर ली। काकी और काका भी अपने जान-पहचान वालों से फोन करके पूछ रहे हैं। काकी लगातार इस गिल्‍ट में हैं कि उनके घर से मनु ग़ायब हुआ है और श्रेया कहीं उन पर कोई इल्‍ज़ाम ना लगा दे। मेरे बेबी-सिटिंग की कितनी बदनामी होगी।

-'काकी रात को बेल बजी थी? आपने कुंडी ठीक से लगायी थीक्‍या आपका दरवाज़ा खुला रह गया थाइतना छोटा बच्‍चा दरवाज़ा खोलकर कैसे जा सकता है? आपके घर की चाभी किसी और के पास भी रहती है क्‍याआपसे किसी की कोई दुश्‍मनी तो नहीं? '.... इस तरह के अनगिनत सवाल अनगिनत बार श्रेया काकी से पूछ चुकी है। श्रेया सवाल करती है। मोबाइल उठाकर देखती है, अमन से पूछती है, कोई फोन तो नहीं है कि कोई फिरौती मांगे मनु के बदले। मोबाइल की आवाज़ बढ़ाए रखना। इस तरह की तमाम बातें श्रेया कहती है और ख़ामोश होते ही रोना शुरू कर देती है। उसकी आंखों से मनु का चेहरा हटता ही नहीं है। मनु पीछे से दौड़कर आया और बाँहों में लटक गया। 'मम्‍मा-मम्‍मा' की आवाज़ से जैसे वो पागल हुई जा रही है। कभी उसे मनु का नवजात रूप दिख रहा है, उसकी गोद में सीने से लगा मनु। कभी बकैंयां चलता हुआ, कभी ठुमक-ठुमक कर चलता साल भर का मनु, तो कभी बैग टांगकर स्‍कूल जाता मनु, कभी दौड़ता हुआ मनु, कभी मॉल के शोरूम में छिपा-छिपी खेलता मनु, कभी हँसता हुआ, तो कभी रोता हुआ मनु, अनगिनत रूपों में पूरी सड़क पर मनु ही मनु नज़र आ रहा है।
-'मम्‍मा किसको एस-एम-एस कर रही हो।
-'बेटा मेरी एक फ्रैंड है'
-'क्‍या नाम है उन आंटी का?'
-'अं रीना'
-'कितनी बड़ी हैं, उनके घर में भी मेरे जैसा बच्‍चा है?'
-'नहीं बेटा। भगवान ने उसे नहीं दिया बच्‍चा।'
-'क्‍यों लेकिन। मम्‍मा मैं आपके पास कैसे आया?'
-'बेटा भगवान ने मुझे मनु गिफ्ट दिया'। मुस्‍कुरा पड़ी श्रेया।
-'अच्‍छा। कैसे दिया?'
-'एक दिन मैं हॉस्पिटल गयी और आप मेरे पास आ गये'
-'तो क्‍या मैं स्‍मॉल बाबू जैसा था?'
-'हां बेटा बहुत स्‍मॉल'...गोद में मनु को लेते हुए श्रेया बोली--'छोटा-सा, रूई के फ़ाहे जैसा। कोमल-नाज़ुक'
-'तो आपने मुझे प्‍यार किया था?'
-'हां बेटा। बहुत।'
-'आप अभी भी वैसे ही प्‍यार करती हो मुझसे?'
-'हां बेटा।'
-'और पापा?'
-'वो भी'
-'फिर मुझे आप काकी के यहां रोज़-रोज़ क्‍यों भेजती हो। बचपन में जब आप छोटी थीं, आपके मम्‍मी-पापा आपको प्‍यार करते थे, आपके साथ खेलते थे?'
-....'हां बेटा'
-'क्‍या वो भी आपको काकी के यहां छोड़ते थे? और काकी आपको डांटती थीं, मारती थीं, खेलने नहीं देती थीं?'
-'उफ़ दादा बेटा!’….
मनु को कैसे समझाएं कि हमारे बचपन के दिनों में नौकरी मजबूरी नहीं थी। उन दिनों सपने छोटे, वक्‍त और जिंदगी सरल हुआ करती थी। अपने शहरों में भरे-पूरे परिवार और पास-पड़ोस में बच्‍चे कब बड़े होते थे, पता ही नहीं चलता था। तब ‘बेबी सिटिंग’ का चलन नहीं था। अब स्‍कूल में रिश्‍तों को समझाने के लिए ‘फैमिली ट्री’ बनवाया जाता है। हमने ‘फैमिली ट्री’ की जिंदा शाखाओं को जिया है।  श्रेया कई बार जज्‍़बात की रौ में नौकरी से त्यागपत्र लिखकर फाड़ चुकी है। कहीं हमारी नौकरियों की वजह से मनु का बचपन तो नहीं छिन रहा है। 
 
-'चलो श्रेया घर चलते हैं'। अमन की इस आवाज़ ने श्रेया को विचारों के बियाबान से वापस लौटाया। 'कुछ खा लो। अपनी बिल्डिंग के लोगों से भी कहते हैं। उन्‍हें भी बताते हैं। शायद वो मदद करें'। बिल्डिंग के गेट पर पहुंचते ही कार का दरवाज़ा खुलते ही मनु ज़ोर से भागता है और लिफ्ट का बटन दबाने की होड़ लगती है। अगर पापा या मम्मा ने लिफ्ट का बटन दबा दिया, तो मनु नाराज़। कान पकड़कर सॉरी बोलना पड़ता है तब मनु लिफ्ट में घुसता है।' आज श्रेया ने अपने हाथों से लिफ्ट का बटन प्रेस किया। 'मनु तू कहां है। अगर तू मुझे ना मिला तो मैं जिंदा नहीं रहूँगी'..बिल्डिंग की दसवीं मंजिल पर बोझिल मन से दोनों लिफ्ट से बाहर आए। सामने सीढ़ियों पर कुछ दिखाई दिया। एक सीढ़ी पर बैठकर, दूसरी सीढ़ी से सिर टिकाकर अधलेटा बच्‍चा...उसे क्‍या पता, उसके मम्‍मी पापा उसके लिए कितने हैरान-परेशान हैं। उफ़- दसवें माले की वीरानी। किसी ने मनु को देखा होता, तो आज उनकी ये हालत नहीं होती। वाह रे मायानगरी मुंबई। महीनों हो जाते हैं बिल्डिंग के लोगों से मिले। श्रेया के मुंह से ज़ोरदार चीख़ निकली---'मनु....मेरा मनु'

मनु को आधे-आधे अपनी बाँहों में लिए, वो तीनों जैसे एक काया बन गये थे। मनु की देह बुख़ार में तप रही थी। गालों पर आंसू की धाराएं सूखकर सफ़ेद लकीरें बन गयी थीं। नाक बहकर होठों तक आयी हुई थी। हाथ-पैर एकदम निढाल। श्रेया के हाथों का स्‍पर्श पाकर वो जग गया। सिहर गया। 'नहीं मम्‍मा, नहीं मत जाओ, मुझे छोड़कर कहीं मत जाना, मुझे नहीं जाना काकी के घर। वो मुझे डांटती हैं। मुझे डर लगता है। मुझे बैड-मैन पकड़ लेगा।' श्रेया पागलों की तरह मनु को प्‍यार करने लगी। श्रेया का रोना-हँसना, खुशी-ग़म, बोलना-बुदबुदाना सब एक हो गये थे। 'मेरे मनु, तूने ये क्‍या किया? काकी के घर से कैसे निकला? यहां कैसे आये बेटा। कौन था मसीहा, जिसने तुझे किडनैप किया और घर के सामने छोड़ गया। देखा अमन भगवान ने मेरी सुन ली ना। ये भगवान ही है, जो इसे यहां रख गये'। श्रेया की इस तरह की तमाम बातें हवा में कहीं गुम हो गयी थीं। सिर्फ मनु का नींद और बुख़ार की अवस्‍था में बड़बड़ाना ही घर में गूँज रहा था। 'मम्‍मा अब मुझे छोड़कर कहीं मत जाना। मुझे बहुत डर लग रहा था जब मैं अकेले आ रहा था। रास्‍ते में कोई बैड-मैन नहीं मिला, नहीं तो वो मुझे पकड़ लेता और मुझे घर ही नहीं आने देता। मैं तो काकी से बिना बताए चला आया, अगर पूछता तो आने ही नहीं देतीं। मैं बहुत ब्रेव हूं। आप मुझे डांटोगी तो नहीं ना? मैं इसलिए अकेले बिना बताए आया, क्‍योंकि आप ऑफिस से घर आतीं और फिर वापस ऑफिस चली जातीं...और फिर आपकी ट्रेन बंद हो जाती... और रात हो जाती, अंधेरा हो जाता, आप फिर नहीं आतीं.. इसलिए मैंने सोचा यहां दरवाज़े पर बैठ जाऊंगा और जब आप आओगी तो मैं आपको जाने ही नहीं दूँगा फिर आप कैसे छोड़ोगी काकी के यहां। मम्‍मा प्‍लीज़, आज से आप ऑफिस नहीं जाना।'

श्रेया ने मनु को सीने से चिपका लिया था। अमन मनु का सिर सहला रहे थे.... --मेरा बातूनी मनु, तू इतना साहसी है, मुझे आज पता चला। मेरा बच्‍चा, बुखार में भी तू इतना बोल रहा है, आ गये हैं तेरे मम्‍मी-पापा। तू अब घर में है मेरे बच्‍चे'। बाहर फिर तेज़ बारिश शुरू हो गयी है, पर श्रेया को अब ये बारिश सुखद लग रही है। 
 


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