Saturday, December 12, 2009

लसोढ़े के अचार, बेर का चूरन और कुल्‍हड़ों वाली शाम


इलाहाबाद गई थी तो प्रतापगढ़ वाले जीजा बोले--'ममता अचार तो नहीं चाहिए । कहो तो ला दें ।' अचार मेरी कमज़ोरी रहा है । जब 'प्रेग्‍नेन्‍ट' थी तो किसी ने वादा किया था कि आपके लिए 'लसोडे़' का अचार भेजेंगे । ये अचार ना आना था ना आया । बहरहाल.....कल के अख़बार में पढ़ा नज़दीकी 'खादी-ग्रामोद्योग-संस्‍थान' के मैदान में एक राष्‍ट्रीय-हैंडलूम-प्रदर्शनी लगी है । सो हम जादू और उसके पापा को लेकर जा पहुंचे । 

ऐसी जगहों पर सबसे पहले नज़र पड़ती है रेशमी साडियों पर । मन ललच गया--'हाय ये लूं, नहीं नहीं ये ठीक रहेगी । अच्‍छा वो वाली तो बहुत ही बढिया है' । सरगुजा का 'कोसा-सिल्‍क' । बंगाल की रेशमी साडियां ।

——‘लसोढ़ा का अचार अहै, अंवरा क मुरब्‍बा अहै, अंवरा का लड्डूउ, अ जामुन क सिरका, ई चटपट गोलीई, हई देखा मिक्‍सौ अचार अहै' । देखा आमौ का अचार, कटहर, करौंदा, लसोढ़ा कुलि बा । केतना अचार चाही तोहका

उड़ीसा, महेश्‍वर, दक्षिण-भारत.... सभी जगहों की साडियां और सूट के कपड़े । साडियां पहनती कभी-कभार ही हूं पर ख़रीदकर सहेजने का शौक़ बहुत है । वॉर्डरोब खोलूं तो साडियों को छूकर देखने, देखकर निहाल होने और अपने ऊपर लगाकर आईने के सामने निहारते हुए मैं घंटों बिता सकती हूं । मुझे लगता है कि इसका अपना अलग ही मज़ा है । तो सबसे पहले लगा कि फ़ौरन दो साडियां तो ख़रीद ही ली जाएं । पतिदेव का चेहरा देखने लायक़ था कि आज तो डाका लगा जेब पर । कहने लगे कि 'जादू' के आने के बाद कभी साड़ी पहनने की कोशिश भी
की । यूं तो 'इनकी' ऐसी समझाईशें आसानी ने मेरे ऊपर असर नहीं करतीं, लेकिन इस बार लगा, बात तो सही है । रहने दिया जाए क्‍या । चलो 'सूट' ही ख़रीदे जाएं । साथ में जीन्‍स के साथ पहने के लिए कुछ टॉप भी ।

ख़ास बात ये कि जब सूट के कपड़े देखे तो आंखें खुली रह गयीं । सुंदर रंग, मनमोहक कशीदाकारी...बढिया था सब कुछ । और दाम मुंबई के हिसाब से काफी कम । कपड़े अपने डिज़ायन में अनूठे भी थे । इस प्रदर्शनी में ख़ास बात ये कि जैसे ही फ़ुरसत होकर आगे बढ़े तो एक स्‍टॉल पर बोर्ड लगा था-
'पुष्‍पांजली प्रतापगढ़' । 'अरे ये तो वही जीजा वाला अचार है, जिसे मैं परांठों के साथ चटख़ारे लेकर खाती हूं और जो ख़त्‍म होने लगा है...और मैं कई दिनों से सोच रही थी कि कोई इलाहाबाद से आने वाला हो...तो मंगवा लिया जाए' ।  मैंने तो ख़ुशी के मारे स्‍टॉल पर मौजूद व्‍यक्ति से सवालों की झड़ी लगा दी । 'क भैया प्रतापगढ़ के कउनी जगह से आय अहा', 'लसोढ़ा क अचार बाटै' । फिर क्‍या था अचार वाले भैया तो प्रसन्‍न मुद्रा में, चश्‍मे को ऊपर उठाते हुए गदगद होकर कहने लगे--'अरे बिट्टी ! याह देखा । लसोढ़ा का अचार अहै, अंवरा क मुरब्‍बा अहै, अंवरा का लड्डूउ, अ जामुन क सिरका, ई चटपट गोलीई, हई देखा मिक्‍सौ अचार अहै' । देखा आमौ का अचार, कटहर, करौंदा, लसोढ़ा कुलि बा । केतना अचार चाही तोहका । ल हई अमवा का अचरवा चीख ल ।' भई हम तो हो कन्‍फ्यूज़ । कौन सा अचार लें, कौन सा छोड़ें' । छुट्टी पर चल रहे हैं तो क्‍या हुआ, गले का ध्‍यान तो रखना ही पड़ता है ना ।

अचार, आंवले के लड्डू सब ख़रीदे । और मुदित मन से आगे बढ़े तो एक  जगह नागपुर के स्‍टॉल पर अनुरोध किया गया--'बेर का चूरन चखिए मैडम' । 'बेर का चूरन' । मन जैसे छलांग मारकर बचपन की गलियों में पहुंच गया । दस पैसे का बेर का चूरन । खरदरा पिसा हुआ । आह, वाह, हाय हाय । चटख़ारे लेकर चख ही रहे थे कि तभी सूचना दी गयी कि आपके बचपन वाले 'गीले बेर' ( उबाले हुए ) भी हैं और बेर का शरबत
भी । अब ये पैकेटबंद बिकते हैं । फिर इनके स्‍वास्‍थ्‍यकर होने पर आख्‍चान भी दिया गया । बस समझिए कि परम-आनंद आया । आगे बढ़े तो उदयपुर के स्‍टॉल पर अनारदाने का चूरन, जीरा-गोली, चटपट गोली, मेथीदाने की गोली, हिंगाष्‍टक गोली जाने क्‍या-क्‍या था । ये चखिए, वो चखिए । अरे ये भी लीजिए वो भी लीजिए । सारी महिलाएं चटख़ारे ले रही हैं । यहां से कुछ पैकैट ले लिए गए ।

आगे बढ़े दिखे तो बैंगलोर से आए लकड़ी के खिलौने । लकड़ी का 'किचन-सेट' । लकड़ी की मोटर कार । लकड़ी के लट्टी । लकड़ी का झुनझुना ।
सीटी । अगरबत्‍ती स्‍टैन्‍ड । कलमदान । नन्‍हीं टेबल कुरसी । सब कुछ लकड़ी ही लकड़ी । यहां की ख़रीददारी
जादू ने की । और मज़ा मुझे 'जादू' से ज्‍यादा आया । ( जादू के डॉक्‍टर मामा ने अपने बचपन के लकड़ी के खिलौनों की तस्वीर भेजकर कुछ दिन पहले हमें अपने बचपन में पहुंचा दिया था ) सामने ही मिट्टी के कुल्‍हड़नुमा प्‍यालियां, मग और ट्रे नज़र आए । सब कुछ छोड़कर मैं उधर चल पड़ी । चीनी मिट्टी के ये बर्तन वाक़ई शानदार थे । वैसे मेरे पास इसी तरह की प्रदर्शनी के ख़रीदे गए चीनी-मिट्टी के कुल्‍हड़ हैं जिनमें चाय पीने का अपना ही मज़ा है । कल इनकी तादाद में इज़ाफ़ा हो गया ।

मुख्‍य-द्वारा पर गांधीजी की 'चरख़ा कातते हुए' एक प्रतिमा लगाई गई
है । पहले पता होता तो कैमेरा लेकर जाते और जादू की तस्‍वीर बापू के साथ खींच ली जाती । अब रविवार को फिर जाना तय है । फिर वही लसोड़े का अचार, वही चटपट, वही चूरन, वही बचपन ।

Sunday, November 29, 2009

डायरी के कुछ पन्‍ने--'मां के जाने के बाद' ।


मां के अवसान को मन जैसे पूरी तरह स्‍वीकार नहीं कर पाया है । कंप्‍यूटर पर उनकी तस्‍वीर देखूं तो अचानक ही 'इनसे' कहने लगती हूं कि मां ऐसा कहती हैं, वो वैसा कहती हैं । 'हैं' से उनके अचानक 'थीं' हो जाने को कैसे स्‍वीकार करूं । इन दिनों जो डायरी लिखी, उसके पिछले दो अंकों में मैंने अपनी मां के बारे में कुछ-कुछ बताया । अब थोड़ा-सा और कुछ इस अंतिम कड़ी में......

जब कभी भाई-बहनों में खटपट हो जाती, और मां के सामने जब कभी ग़ुस्‍सा दिखाते या किसी बात पर खीझते तो वो हमेशा किसी उपन्‍यास, किसी कहानी या किसी पौराणिक-कथा का संदर्भ देतीं, यहां तक कि अप्रत्‍याशित रूप से किसी फिल्‍म के कथानक की मिसाल देकर समझातीं—‘प्रेमचंद का उपन्‍यास ‘निर्मला’ नहीं पढ़ा है क्‍या, वो बेचारी कितना कष्‍ट सहती है । लड़कियों को नम्र होना चाहिए । सिर झुकाकर दो बातें सुन लेनी चाहिए । क्‍योंकि पराए घर जाना है ।’ कभी उदाहरण देतीं—‘गोदान’ में गोबर और धनिया का चरित्र पढ़ा है । धनिया ने कितने दुख सहे, ग़रीबी झेली । दुख सहने से आदमी और महान बन जाता है, बड़ा हो जाता है । तो इस पर हम सब ये कहते कि घर में सब कुछ होते हुए भी आप हमेशा त्‍याग करती रहीं, आपको क्‍या मिला । इसलिए इंसान में अपनी बात कहने का साहस तो होना चाहिए ना । घर में नौकर-चाकर होते हुए भी सिर्फ रीति-रिवाजों के निर्वाह के लिए और बड़ों के सम्‍मान के लिए आप बिना खाए-पिए रसोई में खटती रहती थीं तो इसमें कौन-सा अच्‍छा किया आपने । तो फिर वो कहतीं, बात तो सही है, लेकिन इसी त्‍याग के कारण हमारी नानी के यहां, घर-परिवार में जो नाम मिला है, वो किसी और को मिला है क्‍या ।

धीरे-धीरे पता नहीं कब उनकी मान्‍यताएं बदल गयीं थीं । मैं कभी तकिये के गिलाफ़ में कशीदे या पेन्टिंग करना चाहती तो मना करतीं, कहतीं सिलाई-कढ़ाई मत करो, पढ़ाई करो । हमारी तरह जल्‍दी से चश्‍मा लग

—‘सरीर नाहीं साथ देहस, सुनार के हियां नाहीं जाय पाए, बच्‍चा के खातिर कुछ बनवाय नाहीं सके,हमरी ओर से काली मोती डलवाए के कुछ बनवाय दिहू’ ।

जाए तो क्‍या फायदा । जब मैं मुंबई में नौकरी करने आ गयी और एक बार तबियत ख़राब हो गयी, तो मुझसे कहती थीं—‘मेरी तरह मत करो कि सिर्फ दूसरों का ध्‍यान रखो । अपना भी ध्‍यान रखा करो ।’ बड़ा अफ़सोस हो रहा है कि मैं अंतिम समय में बहुत चाहकर भी उनके पास पहुंच ना
सकी । अभी इस वक्‍त लग रहा है कि वो थोड़े दिन इस दुनिया में और रहतीं, हम इलाहाबाद जाकर थोड़ा और रह लेते उनके साथ । वो मेरे बच्‍चे को अपनी गोद में थोड़ा और खिला लेतीं, जैसे अभी हाल ही में बीमारी की हालत में भी मुंबई आकर उन्‍होंने खिलाया था । और गोद में लेकर थोड़ी और बार ये गा देतीं—‘आवा हो झड़ुल्‍ले तेरी दादी आएगी, दादी कैसे आयेगी, गदहा चढ़ी आयेगी । लड्डू लिये आयेगी ।’ बेटे को गोद में लेकर और भी ना जाने क्या-क्‍या गातीं । जब बेटा दोनों हाथों को आपस में जोड़कर दबाता तो कहतीं—‘का हो, लड्डू बनावत अहा, केकरे खातिर लड्डू बनावत अहा ।’
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ऐसी तमाम बातें याद आ रही हैं, जो वो बेटे को गोद में लेकर कहतीं, गाती थीं । लगता है वो मेरे सामने बैठी हैं । और मैं अपने बेटे को उनकी गोद में दे रही हूं । लेकिन कड़वा मनहूस सच सामने आकर खड़ा हो जाता है कि अब मेरा बेटा अपनी नानी को नहीं देख पायेगा । जब मेरा बेटा पैदा हुआ था, तो मैं अकसर उसे गोद में लेकर खिलाती और कहती—‘थोड़े दिन में मेरा बेटा इलाहाबाद जायेगा, वहां पे बूढ़ी नानी मिलेंगी, बूढ़ी नानी की गोद में खेलेगा, शू-शू करेगा । मेरे बेटे की खीर-चटाई होगी । खीर-चटाई में बूढ़ी नानी छोटी-सी थाली, छोटा-सा गिलास, छोटी-सी कटोरी, छोटा-सा चम्‍मच देंगी । फिर मेरा बेटा उस छोटी-सी थाली में खाना खायेगा, छोटी-सी कटोरी में खीर खायेगा । मेरे बेटे की ये साध अधूरी रह गयी ।

वे बंबई आईं थीं मेरे बेटे को गोद में खिलाया, जी भर के देखा । बहुत बीमार थीं वो, छोटी-सी कटोरी, छोटा सा चम्‍मच तो नहीं ला सकीं । लेकिन बहुत सारी चांदी की सुपारियां दे गयीं थीं । और बड़े अफ़सोस के साथ उन्‍होंने कहा—‘सरीर नाहीं साथ देहस, सुनार के हियां नाहीं जाय पाए, बच्‍चा के खातिर कुछ बनवाय नाहीं सके,हमरी ओर से काली मोती डलवाए के कुछ बनवाय दिहू’ ।

ऐसा लगता है इन अंतिम दो सालों में शायद वो मेरे बच्‍चे को देखने के लिए ही संसार में बनी रहीं । जब मैं गर्भवती थी तो भी दो तीन दफा उनकी तबियत काफी खराब हुई थी । मैं उनसे कहती थी अपनी तबियत

——‘आवा हो झड़ुल्‍ले तेरी दादी आएगी, दादी कैसे आयेगी, गदहा चढ़ी आयेगी । लड्डू लिये आयेगी

संभालो, खुद को ठीक रखो
अभी । ताकि जब हम बच्‍चा लेकर आएं तो उसे अपनी गोद में खिला सको, आशीष दे सको । जवाब में वो कहतीं—‘हां कोशिश करत अही, बहुत ध्‍यान देइथ, तोहार बेटवा खिलाय लेब तबय जाब’ । ऐसा लगता है उन दिनों उन्‍हें अहसास हो गया था । और शायद मुंबई भी वो इसीलिए आईं थीं—मेरे बच्‍चे को गोद में खिलाने के लिए । हो सकता है कि वो मुंबई ना आतीं और मैं अपने नवजात शिशु को लेकर इलाहाबाद ना जा पाती, और वो उसे ना देख पातीं । तो मुझे जीवन भर के लिए अफ़सोस रह जाता । लेकिन तसल्‍ली है कि मेरा बेटा अपनी नानी की गोद में जी –भरके खेला । खूब सारे आर्शीवाद पाए ।

इस खबर के बाद जब इलाहाबाद जाना हुआ, तो जिस कमरे में जिस बिस्‍तर पर वो लेटती थीं, वहां बैठकर हम फफक-फफक कर रोए । लेकिन जैसे उस कमरे से बाहर आते, ऐसा लगता अभी वो उस कमरे से निकलेंगी और कुछ बोलेंगी । रात को हम सोते, तो लगता था कि मां सिरहाने आकर खड़ी हैं । हम लोगों को देख रही हैं । और शायद इसी अहसास में मैं जितने दिन वहां थीं, पूरी-पूरी रात जगती रही । घर में बीस-पच्‍चीस लोगों की उपस्थिति तो रही ही होगी, लेकिन लगता था घर में सन्नाटा छाया है । सब लोग बोलते रहते थे कुछ ना कुछ लेकिन लगता था कहीं कोई आवाज़ नहीं है । खूब चहल पहल रहती थी लेकिन लगता था कोई घर पर है ही नहीं । यहां तक कि घर से निकले, तो गली और सड़कें भी खाली और वीरान-वीरान लगीं । ऐसा लगा मानो शहर में अब कुछ बचा ही नहीं ।

तेरहवीं से पहले ‘शुद्ध’ की रस्‍म होती है । उस दिन पूजा की जाती है । कहते हैं इस दिन घर शुद्ध करके आत्‍मा की विदाई होती है । घर में ऐसी पहली पूजा थी, जिसमें मां नहीं थीं । और ये पूजा उन्‍हीं के लिए थी । मैं रो रही थी । हम सब रो रहे थे । मेरे असम वाले भैया मुझे समझाने लगे, अब बस करो, संभालो अपने आप को, अब आज से रोना नहीं चाहिए । आज उनकी विदाई हो गयी । ताकि उनकी आत्‍मा को शांति मिले । मेरे जीजाजी कहने लगे, हमेशा के लिए थोड़ी कोई आता है । अपनी उम्र जीकर गयीं ना । इतना रोओगी तो उनकी आत्‍मा को कष्‍ट पहुंचेगा । लेकिन मैं कैसे समझाऊं अपने-आप को । मुझे भी तो ये बातें पता हैं । अपने मन से कैसे करूं बिदाई । अपने मन को कैसे समझाऊं कि एक बार जो जाता है कभी वापस नहीं आता । अभी भी लगता है कि एक बार वे वापस आ जातीं और हम थोड़े दिन और सा‍थ जी लेते । अपने मन को कैसे समझाऊं कि मां का होना मेरे लिए कितना महत्‍वपूर्ण था । मेरे लिए सच्‍चे मन से दुआ करने वाली मेरी मां ही थीं । शायद उनके आशीषों से मैं कई बार कई मुसीबतों से उबर पाई ।


इस बार की यात्रा में बस एक दिन ऐसा था, जिस दिन थोड़ा हंसे-बोले । जब जादू के डॉक्‍टर मामा के साथ उनके घर पर जाना हुआ । इस वक्‍त उनसे मिलना भी मां की ही वजह से हुआ । क्‍योंकि मां ने सबको जोड़ने का ही काम किया । और तो और स्‍कूल के ज़माने की दो सहेलियां छाया और व्‍याहृति भी इसी मौक़े पर मिलीं । कोई संपर्क-सूत्र था नहीं इसलिए इलाहाबाद जाने पर उनसे मिलना नहीं होता था । लेकिन इस बार संयोग से एक सहेली का संपर्क-सूत्र मिला और उससे दूसरी का । दोनों सहेलियां मां को खूब प्रिय थीं । जाते-जाते भी मां उनसे फिर जोड़ गयीं ।


सागर भाई आपकी भेजी कविता मर्मस्‍पर्शी है । पढ़ते हुए आंसू आ गए । संदेशों के लिए सभी का आभार ।

Tuesday, November 24, 2009

डायरी के कुछ पन्‍ने-'मां का विदा हो जाना'


पिछले कुछ महीनों में मन जैसे भर-सा गया है । मां की बीमारी और फिर उनके अवसान के दिनों में मैंने जो डायरी लिखी उसके कुछ पन्‍ने यहां छाप रही हूं । पिछले पन्‍ने पर मैंने मां की बेबसी, बीमारी और उनके व्‍यक्तित्‍व के कुछ पहलुओं को उजागर किया था । अब आगे...
--ममता

इन दिनों मां बहुत बीमार चल रही हैं । हम इलाहाबाद जाने की तैयारी कर रहे हैं । उनसे मिलने की इच्‍छा तीव्र होती जा रही है । अपने छोटे-से बच्‍चे को लेकर जाने में उहापोह चल रही है कि कैसे जाएं, कब जाएं । मां की हालत काफी गंभीर हो चुकी है । टिकिटों की व्‍यवस्‍था की ही जा रही है कि अचानक ख़बर आई है कि वो अब इस संसार में नहीं रहीं ।

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माई संसार में नहीं रहीं । हमें मालूम है कि वो पंच-तत्‍वों में विलीन हो गयीं लेकिन फिर भी उनके होने का अहसास ऐसा गहरा है, लग रहा है कि वो मेरे पास हैं । कभी उनकी आवाज़ सुनाई देती है । लगता है वो बुला रही हैं—‘कहो ममता, अबकी कब अऊबू । बच्‍चा कैसन अहै, अ मेहमान ? नित नित का आसीरबाद’ । कभी कहती हैं—‘बेटवा को ना, माथे के

मां के अंत के साथ तमाम पौराणिक ज्ञान का अंत हो गया । तमाम आध्‍यात्मिक बातों का अंत हो गया । उन तमाम नुस्‍खों का अंत हो गया, जो वे हमें घर परिवार के लिए बताया करती थीं ।

बीचोंबीच काला टीका ना लगाओ । बगल में लगावा
कर ।’ ‘सोवत की अकेल जिन छोड़ा करा’ । ‘रोज़ संझा के नजर उतार देवा करा ।’ बेटे की परवरिश और परंपराओं-त्‍यौहारों से जुड़ी हुई और भी तमाम बातें । जो ना तो हमें डॉक्‍टर बतायेंगे ना ही हमारे परिवार के और कोई सदस्‍य ।
मां के अंत के साथ तमाम पौराणिक ज्ञान का अंत हो गया । तमाम आध्‍यात्मिक बातों का अंत हो गया । उन तमाम नुस्‍खों का अंत हो गया, जो वे हमें घर परिवार के लिए बताया करती थीं । पहले किसी भी तरह के पारंपरिक ज्ञान की कोई ज़रूरत पड़ती थी तो फौरन उन्‍हें फोन लगा लिया जाता था । और पक्‍की जानकारी मिल जाती थी । लेकिन अब इस तरह की कोई भी जानकारी पाने के लिए कोई ऐसा सूत्र नज़र नहीं
आता । बेटे को हिचकी आती थी और मैं उससे कहती थी कि नानी याद कर रही हैं तो वो मुस्‍कुरा देता था । लेकिन अब जब अनायास खूब रोता है तो मैं उससे पूछती हूं, बेटा कौन याद कर रहा है, बेटा तो कोई जवाब नहीं देता लेकिन मेरी आंखें धार-धार बरसने लगती हैं ।

बार-बार लगता है—‘मां जिस रूप में भी थीं, चाहे जितनी बीमार थीं, थीं तो एक संबल के रूप में । बहुत बड़ा सहारा थीं वो । पूरे परिवार को एक सूत्र में जोड़ने वाली थीं । उनके जाने से वो संबल टूट गया । वो सूत्र भी कमज़ोर हो गया, जिससे पूरा परिवार जुड़ा हुआ था । परिवार में किसी

कोई ऐसा गीत गुनगुनाने की कोशिश करती हूं जिसमें ‘मां’ शब्‍द ना आए । लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे वो सामने आकर खड़ी हो गयी हैं और होंठ कांपने लगते हैं, आंखें भीग जाती हैं

की किसी से खटपट हो जाए तो वे जोड़ने का काम करती थीं । उस शख़्स की अनुपस्थिति में समझाती थीं कि फलाना मन का बहुत अच्‍छा है । उसको फ़ोन कर लिया करो, बातें कर लिया करो । उनका भले ही किसी ने दिल दुखाया हो, लेकिन वो किसी का दिल नहीं दुखाती थीं । एक बार भैया की तबियत ख़राब हो गयी थी, जिनके साथ वो इलाहाबाद में रह रहीं थीं । भैया को हैजा हो गया था, मां खुद भी बीमार चल रही थीं । भैया को असंख्‍य उल्टियां हो रही थीं । और मां अपनी बीमारी को, अपनी जर्जर अवस्‍था को अनदेखा करते हुए घर से निकलीं और दौड़ पड़ी डॉक्‍टर को बुलाने । डॉक्‍टर नहीं मिले, तो रिक्‍शा ले आईं ताकि भैया को किसी और डॉक्‍टर के पास ले जाया जा सके । फिर तो भाभी और परिवार के लोग जमा हो गये, लेकिन तुरंत जो हिम्‍मत बीमारी के बावजूद उन्‍होंने दिखाई उससे भैया का स्‍वास्‍थ्‍य तुरंत ठीक किया जा सका ।

बड़ी जीवट की थीं मेरी मां । उनकी इच्‍छा-शक्ति बेहद मज़बूत थी इसलिए कई बार वो गंभीर-अवस्‍था तक पहुंचकर भी पुन: स्‍वस्‍थ हो गयीं । घर-परिवार के लोगों की बीमारी में रात-रात भर अपनी नींद गंवा देने वाली मेरी मां ने जाने से पहले वाली रात बैठकर बेचैनी में बिताई । सोईं नहीं रात भर । जिस दिन वे गईं, हॉस्पिटल जाने से पहले अपना दैनिक-कर्म स्‍वयं किया । यहां त‍क कि नहाना-धोना भी अपने हाथों से किया । घर वालों के सहारे से । इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद, जैसे कहीं जाने के लिए अपने-आप तैयार होती थीं, उसी तरह से तैयार हुईं । और घर से डॉक्‍टर के पास गयीं । लेकिन डॉक्‍टर के पास से घर तक सकुशल नहीं पहुंच सकीं । अपनी इच्‍छा के मुताबिक़ घर के पास मंदिर के सामने उन्‍होंने संसार से विदा ली ।

अपना चेहरा घुमाओ, पीछे मुड़कर देखो तो लगता है, मां खड़ी हैं । अगल-बगल किसी भी तरफ़ देखो, तो जैसे मां यहीं पर हैं । इस वक्‍त कुर्सी के पीछे भी वे खड़ी हैं । फिर जैसे कंप्‍यूटर की स्‍क्रीन पर आ गयी हैं । लगता है वे हमें देख रही हैं । हम क्‍या कर रहे हैं, बस अभी कोई सवाल वो पूछ बैठेंगी । पीछे मुड़कर देखते हैं, कोई नहीं दिखता । सिर्फ उनका अदृश्‍य अहसास । और मैं उदास हो जाती हूं । डर जाती हूं । उनकी यादों से उबरने की कोशिश करती हूं । कोई ऐसा गीत गुनगुनाने की कोशिश करती हूं जिसमें ‘मां’ शब्‍द ना आए । लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे वो सामने आकर खड़ी हो गयी हैं और होंठ कांपने लगते हैं, आंखें भीग जाती हैं, और वो कहती हैं—‘तुम क्‍यों इतनी दुखी हो, छोटा- बच्‍चा है । उसका ध्‍यान रखो । तुमने तो मेरे लिए बहुत किया ना ममता, बेटी होकर इतना क़र्ज़ा दे दिया है, अब कैसे उतारूंगी । देखो बेटों से कह आईं हूं, शायद वो तुम्‍हारा क़र्ज़ा उतार देंगे तो मैं निश्चिंत हो जाऊंगी’ ।

दरअसल मैं जब भी इलाहाबाद जाती तो उनके हाथ में कुछ पैसे पकड़ाकर आती । उनकी जितनी भी दवाईयां-टॉनिक होते, ख़रीदकर आती । उनसे रोज़ पूछती थी, क्‍या खाना है, लाकर देती थी । डॉक्‍टर का प्रिस्क्रिप्‍शन देखकर उन्‍हें सलाह देती थी । ये टॉनिक है, ये रोज़ लेना । ये दवा है इतने ही दिन खाना । और जो भी उनकी पसंद की चीज़ होती थी वो उन्‍हें खिला देती थी । बस इतने में ही वो गदगद हो जाती थीं । निहाल हो जाती थीं । ऐसा नहीं है कि भाई-भाभी उनका ध्यान नहीं रखते थे । लेकिन मेरी इन छोटी-छोटी कोशिशों का सुख उनके लिए बड़ा अनमोल था ।


शशिभूषण जी, पिछले पन्‍ने पर आपने टिप्‍पणी में जो कविता भेजी, वो इतनी मर्मर्स्‍पशी थी कि उसे पूरा पढ़ने से पहले ही मेरी आंखें डबडबा
गयीं । जिन लोगों ने अपने विचार दिए, उन सभी का आभार ।


--तीसरे भाग में जारी

Sunday, November 22, 2009

डायरी के कुछ पन्‍ने : 'मां की बीमारी'



पिछले कुछ महीनों में मन जैसे भर-सा गया है । मां की बीमारी और फिर उनके अवसान के दिनों में मैंने जो डायरी लिखी उसके कुछ पन्‍ने यहां छाप रही हूं--ममता


मुझे लगता है कि उम्र के एक पड़ाव पर आकर हर कोई एकाकी हो जाता है । किसी बुज़ुर्ग को अगर क़रीब से देखें तो ये बात बड़ी गहराई से महसूस होती है । मैं जब भी अपनी मां को देखती हूं तो लगता है‍ कि वो बड़ी अकेली हैं, बड़ी बेसहारा हैं, उनका बड़ा सा परिवार है, बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-पोते, नाती के भी बच्‍चे वे देख चुकी हैं । हाल ही में अपने एक और नवजात नाती यानी मेरे सुपुत्र को गोदी में खिलाकर निहाल होने का सुख पा लिया है ।

mai fotos 003                भैया के बच्‍चों, अनुवर्तिका और देवव्रत के साथ मां



फिर भी ना जाने क्‍यों उनकी आंखें जब-तब शून्‍य में ताकने लगती हैं । वे आंखें बंद करके पलके झपकाने लगती हैं तो  लगता है कि वो सो रही हैं । दरअसल वो सो नहीं रही होती हैं बल्कि उस वक्‍त वो दुनिया-जहान की बातें सोचती हैं, बीते कल को याद करती हैं, वर्तमान की खट्टी-मीठी

देखते ही देखते उनका ‘रौबदार’ रूप एक ‘निरीह’ रूप में ढल गया । बचपन पीछे छूट गया, हम बड़े हो गए । हम भाई-बहनों को उंगली पकड़कर सब-कुछ सिखाने वाली मां हमीं लोगों से सीखने लगीं ।

घटनाओं के भंवरजाल में डूबती-उतराती रहती हैं, बेटे-बहुओं के भविष्‍य के बारे में सोचती हैं, मेरे बारे में सोचती हैं और जाने किस-किस के बारे में सोचती हैं । हालांकि अब वो कम बोलती हैं लेकिन उनकी आंखें जैसे हर वक्‍त कुछ कह रही हों । इस समय वो बड़ी बीमारी से जूझ रही हैं । मेरे पिताजी जिन्‍हें हम ‘बाबा’ कहते थे, बहुत जल्‍दी ही उन्‍हें अकेला छोड़ इस असार-संसार को अलविदा कह गए थे । हम कई भाई-बहन मिलकर उनका संबल बने । लेकिन मुझे लगता है कि वे हम-सबका भरा-पूरा साथ पाकर भी भीतर से निपट अकेली ही रही हैं । धीरे-धीरे उनका अकेलापन गहराता ही गया है ।

कई बार उनके अतीत को जब हमने कुरेदने की कोशिश की
तो वे बड़ी भावुक हो उठतीं । पिताजी से जुड़ी तमाम यादें बांटते हुए मुस्‍करा उठतीं, कभी रूंआसी हो उठतीं । और बातों-बातों में ये जता देतीं कि हमारे ज़माने में पति-पत्‍नी का प्‍यार सिर्फ़ चार-दीवारी के भीतर क़ैद होता था । घर-परिवार के लोग जान भी नहीं पाते थे कि ये लोग आपस में कितना प्यार करते थे । वे बतातीं हैं कि जब वो ब्‍याहकर आईं थीं तो सिर्फ़ तेरह साल की थीं । बड़ा परिवार, ज़मींदारी-प्रथा, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं को निभाते, धन-दौलत को संभालते-संभालते कई बच्‍चों की मां बन गयीं ।

किशोरावस्‍था से कब उनका यौवन आया, कब बुढ़ापा और कब बुढ़ापे से वे जर्जर हो गईं, उन्‍हें पता ही नहीं चला । हर दौर में बड़ी कुशलता से अपनी जिम्‍मेदारी निभाती रहीं वे । कभी सुघड़-पतिव्रता पत्‍नी बनीं, कभी कुशल बहू, ममतामयी मां और फिर सास, दादी, नानी सब-कुछ बनीं । जिंदगी के हर किरदार को उन्‍होंने बड़े अच्‍छे-से निभाया । अपने बच्‍चों को पढ़ाया-लिखाया, पैरों पे खड़ा किया । और जब बन गईं सास, तो फिर-से दौर आया पालन-पोषण का, अपने पोती-पोतों की परवरिश की जिम्‍मेदारी उन्‍हीं के कंधों पर आई । कभी उन्‍होंने ‘उफ़’ नहीं की  । हर दौर की जिम्‍मेदारी को उन्‍होंने स्‍वयं अपने ऊपर ओढ़ लिया ।

मैं सोच रही हूं कि उन्‍होंने अपने लिए कब जिया । अपने लिए कब खुश हुईं । क्‍या कभी उन्‍होंने खुद के लिए कोई सुख बचाकर रखा । कोई ऐसी खुशी उन्‍होंने अपने भीतर सहेजी जो सिर्फ उनसे जुड़ी हो । यहां तक कि धन-वैभव भी उन्‍होंने सबको बांट दिया । बार-बार मेरे ज़ेहन में ये बात आ रही है क्‍या मेरी-मां सिर्फ़ दूसरों के लिए ही जीती हैं ।

कभी-कभी जब नाती-पोतों को किसी ग़लती पर डांटतीं और भाभी को अच्‍छा नहीं लगता तो हम उन्‍हें सलाह देते कि आपको टोक-टाक करने की ज़रूरत क्‍या है । यही बात हम उन्‍हें तब समझाते थे जब घर में कुछ उनकी मरज़ी या इच्‍छा के खिलाफ़ होता और वो अपनी नाराज़गी जाहिर
करतीं । यहां तक कि उन्‍हें पड़ोसियों की भी चिंता होती थी ।

मुझे लगता है कि वे सिर्फ़ अपनी ही चिंता नहीं करतीं थीं, बाक़ी सारे लोगों की चिंता करती थीं, किसने समय पर खाना नहीं खाया, कौन समय पर घर नहीं आया, किसकी तबियत ख़राब है, किसको दवा की ज़रूरत
है । लेकिन जब अपनी बारी आती, तो सोचने के लिए उनके पास कुछ होता ही नहीं था । शायद उन्‍हें लगता था कि उनके बारे में कोई और
सोचे । लेकिन उन्‍हें ये बात समझ नहीं आती थी कि उनके ज़माने में और आज के ज़माने में फ़र्क़ है । पहले के लोग सिर्फ़ परिवार के लिए जीते थे । आज के ज़माने में पहले अपने लिए फिर परिवार के लिए जिया जाता है ।

मैंने अपने बचपन में अपनी मां का एक रूप देखा था जो बड़ा ही दबंग
था । बिल्‍कुल हेड-मिस्‍ट्रेस जैसी दिखती थीं । हम भाई-बहन उनकी निगाहों का सामना करने से डरते थे । हालांकि मैं उनकी सबसे लाड़ली
थी । कई बार तो वो छड़ी से सबको मारती थीं तो मैं उनसे पूछती थी कि मुझे भी मारोगी । इस पर वो बोलती तो कुछ नहीं थीं लेकिन मुझे मारती नहीं थीं । क्‍योंकि मैं बहुत शरारती नहीं थी । मुझे तो उनकी मार नहीं याद है लेकिन मेरे भाई-बहनों को बड़ी मार पड़ी है । देखते ही देखते उनका ‘रौबदार’ रूप एक ‘निरीह’ रूप में ढल गया । बचपन पीछे छूट गया, हम बड़े हो गए । हम भाई-बहनों को उंगली पकड़कर सब-कुछ सिखाने वाली मां हमीं लोगों से सीखने लगीं । हमीं लोगों से हर क़दम पूछ-पूछकर रखने लगीं । किसी के घर जाना है तो भैया से पूछतीं—जायें कि नहीं । कुछ खाने का मन हो, तो दूसरों से पूछतीं थीं कि आज ‘पकौड़ी’ या ‘कढ़ी’ खाने का तुम्‍हारा मन है क्‍या । बना ली जाए क्‍या ।

मुंबई से जब मैं जाती थी तो अकसर वे मुझसे कढ़ी खाने को ज़रूर पूछतीं थीं—‘ममता कढ़ी खाने का मन है क्‍या’ । पूछने का दूसरा तरीक़ा होता था—‘मेहमान’ (मेरे पति महोदय) के लिए कढ़ी बना दें क्‍या । और मैं सीधा-सा जवाब देती—‘नहीं नहीं कहां परेशान होंगी, सादा खाना भाभी जो बनायेंगी, वही खा लेंगे, आप कहां परेशान होंगी ।’ लेकिन बाद में मुझे ये अहसास हुआ, कि उनकी खुद की भीतर से इच्‍छा होती थी । लेकिन पुरानी प्रथाओं और मान्‍यताओं को मानने वाली मेरी मां स्‍वेच्‍छा से अपने लिए कुछ नहीं बनाती थीं । ये बात मुझे बहुत बाद में महसूस हुई । जब मुझे इस बात का अहसास हुआ तो मैं उनसे कहने लगी कि आखिर आप अपने लिए कुछ क्यों नहीं करतीं । आप दूसरों के बहाने से अपनी इच्‍छा क्‍यों पूरी करना चाहती हैं । आप खुद अपनी इच्‍छा पूरी कीजिए ना । इस पर उनका जवाब होता था—‘अगर अपने लिए जिए होते, तो सोने की अनगिनत अशर्फियां मेरे पास होतीं । अपने लिए मैंने क्या बचाया । पहले तुम लोगों की दादी जो कहती थीं वो करते थे, फिर तुम्‍हारे पिताजी और अब बेटे जो कहते हैं वो करती हूं ।’

--दूसरे भाग में जारी

Thursday, September 24, 2009

उत्‍सव का मौसम या शोर का मौसम


इन दिनों नवरात्र चल रहे हैं और कहीं पर दुर्गा-पूजा का उत्‍साह है तो कहीं पर गरबा की धूम । ऐसे में मुंबई का  नज़ारा ही कुछ और होता है । हालांकि आजकल मुंबई की तर्ज़ पर छोटे-शहरों में भी गरबा और डांडिया का आयोजन होने लगा है । लेकिन नवरात्र के दिनों में यूं लगता है मानो सारा शहर गरबा कर रहा हो । मुंबई में मैंने एक चलन और देखा कि जहां पर दुर्गा की प्रतिमा की स्‍थापना होती है, वहां पर भी लोग गरबा करते हैं । अपने बचपन के दिनों में असम में मैंने देखा था कि 'देवी' के समक्ष जो नृत्‍य होता है वो एकदम अलग तरह का होता है, बड़ा ही पावन होता है । मोटे तौर पर उसकी एक झलक आप संजय लीला भंसाली की 'देवदास' और प्रदीप सरकार की 'परिणिता' में देख चुके
हैं ।
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बहरहाल मैं अपनी एक आपबीती आप तक पहुंचाना चाहती
हूं । अचानक मेरी तबियत बिगड़ गयी और हम डॉक्‍टर के यहां जा रहे थे । चारकोप के इलाक़े में पहुंचे तो देखा कि 'ट्रैफिक-जाम' है । मैंने सोचा कि इस सड़क पर तो कभी ऐसा होता नहीं है । अचानक ये क्‍या । गाडि़यों की क़तार सरकी तो पाया की इस ओर की सड़क को चार-छह कुर्सियों के ज़रिये रोका गया है और अब दोनों तरफ के वाहन सड़क के एक ही हिस्‍से से आ-जा रहे हैं । देखा तो पता चला कि कुछ लड़के भीड़ बनाकर खड़े हैं । और सिर्फ दिखावे के लिए ट्रैफिक क्लियर करने की कोशिश कर रहे हैं । असल में सड़क का एक बड़ा हिस्‍सा इन्‍हीं लड़कों ने तकरीबन आठ बजे रात से 'गरबा' खेलने के लिए बंद कर रखा था और इस वजह से कितने सारे लोगों को परेशानी हो रही थी ।

सामने देवी जी की विशाल मूर्ति । भक्‍तों का तांता । और उससे थोड़े आगे गरबे का ये ताम-झाम । गाडियों की चिल्‍लपों और ट्रैफिक जाम की खीझ़ । लगा कि इस सड़क से आकर हमने ग़लती कर दी । लेकिन किसी और सड़क से जाते तो भी कोई गारन्‍टी नहीं थी कि ऐसा नज़ारा उस तरफ Ruído_Noise_041113GFDL नहीं होता । जुलूस, विसर्जन, बारात वग़ैरह के लिए तो ट्रैफिक जाम की बात समझ में आती है । पर बीच सड़क पर गरबा खेलना और वो भी ट्रैफिक को डाइवर्ट करके...कहां तक उचित है । ऐसे में हम डॉक्‍टर के यहां देर से पहुंचे । डॉक्‍टर तो मिले पर रास्‍ते में जो तकलीफ़ झेलनी पड़ी, वो किसी यातना से कम नहीं थी । मन में यही ख्‍़याल आया कि मेरी छोटी मोटी समस्‍या तो ठीक है, पर अगर इसी रास्‍ते से कोई बुज़ुर्ग या कोई गर्भवती या गंभीर रूप से बीमार व्‍यक्ति अस्‍पताल ले जाया जा रहा होता तो क्‍या होता ।

हम लोग अपने उत्‍सव और मौज-मस्‍ती में इस क़दर मगन क्‍यों हो जाते हैं कि सार्वजनिक रूप से असुविधा पैदा करने लगते हैं । गणेशोत्‍सव के बाद से मुंबई का शोर अचानक बढ़ जाता है । उसके बाद नवरात्र और फिर दीपावली । आखिरकार नया साल । और फिर होली । यानी एक के बाद crackers एक 'शोर' करने के नये बहाने । इस साल तो इन्‍हीं दिनों मुंबई में चुनाव-प्रचार भी होगा । अचानक बिना चेतावनी के, फूटने वाले पटाख़े किस तरह से 'इरीटेट' करते हैं....आप स्‍वयं भुक्‍त-भोगी होंगे । गणपति-विसर्जन के दौरान पटाख़ों के इस शोर से मेरे नवजात-शिशु को बड़ी असुविधा हुई । वो बार-बार चौंक जाता । रूंआसा हो जाता । डर जाता था । और ये स्थिति दीपावली तक कायम रहने वाली है ।

मुंबई के उत्‍सव तो कभी-कभी बेहद तकलीफ़देह हो जाते हैं । आप बताईये आपके शहरों में क्‍या आलम है ।  

Tuesday, September 22, 2009

आज बोधिसत्‍व और आभा की 'भानी' का जन्‍मदिन है


आज 'भानी' का जन्‍मदिन है । आप सोच रहे होंगे कि ये 'भानी' कौन है । दरअसल भानी हमारे मित्रों बोधिसत्‍व और आभा की प्‍यारी सी बेटी और हमारी फ्रैन्‍ड है । जी हां भानी हमारी फ्रैन्‍ड हैं । इत्‍ती-सी फ्रैन्‍ड । ये जो तस्‍वीर है ये तब की है जब पिछली बार भानी हमारे घर आईं थीं 'बाबू' को देखने के लिए । 'बाबू' यानी हमारे नवागत बेटे  । शरारत का छोटा-सा पिटारा हैं ये भानी जी ।

IMG_2860यूनुस ने तरंग पर अपनी एक पोस्‍ट 'आभा की तहरी' में जिक्र किया है कि भानी किस तरह की फ्रैन्‍ड हैं हमारी । उसी पोस्‍ट की ये पंक्तियां आपको बतायेंगी इस बारे में......


भानी जी और ममता जी 'फ्रैन्‍ड' हैं । इसलिए ममता ने पहुंचते ही 'भानी' जी से बतियाना शुरू कर दिया । पूछा कि यहां कितनी सहेलियां हैं तुम्‍हारी । तो भानी जी नानी जी का जवाब था--'एक भी नहीं' । ममता जी को माजरा समझ नहीं आया, हैरत हुई, इसलिए सवाल को घुमा कर पूछा । जैसा रेडियो वाले हमेशा करते हैं । एक सवाल का सही जवाब ना मिलने पर घुमा-फिराकर उस सवाल को फिर से दाग़ देते हैं । इस बार सवाल था--तुम्‍हारी कितनी फ्रैन्‍ड हैं भानी । भानी का जवाब था, बहुत सारी हैं । नाम पूछने पर बताया पलक दीदी, अलानी दीदी, फलानी दीदी । ( यानी सारी फ्रैन्‍ड उम्र में बड़ी हैं ) हम सभी बहुत हंसे कि सहेलियां एक भी नहीं हैं, पर फ्रैन्‍ड बहुत सारी हैं । ऐसी हैं ये भानी जी...सबकी हैं नानी जी


भानी एक बार जब हमारे घर आईं तो उन पर  'घी-नमक-चावल' खाने की जिद चढ़ी थी । और जब भानी पर कोई जिद चढ़ जाए तो भला मजाल है कोई इसे टाल सके । वैसे भानी जी को आम भी बहुत पसंद है । भानी जी की एक बात मुझे हमेशा याद रहती है । आभा ने या तो बताया था या अपनी किसी पोस्‍ट में लिखा था कि एक बार जब फ्रिज से पानी निकालकर भानी जी ने बोतल को बाहर छोड़ दिया तो उस पर बाहर की तरफ बूंदें जमा हो गयीं । भानी जी का निष्‍कर्ष था कि बोतल को पसीना आ रहा है

भानी जी की ऐसी अवधारणाओं और निष्‍कर्षों के बारे में अकसर आभा लिखती रहती हैं । आप देखिए ये चुलबुली तस्‍वीरें । इनमें से कुछ हमारे कैमेरे से हैं और कुछ को हमने आभा और बोधिसत्‍व के ब्‍लॉग से उड़ाया
है ।
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IMG_2080_thumb2 janamdiIMG_2858-1हम भानी जी को जन्‍मदिन की खूब सारी शुभकामनाएं दे रहे हैं आप भी दीजिए ।

Sunday, February 1, 2009

वो जमुना का पानी, वो इलाहाबाद की यादें ।


बात उस समय की है, जब मैं अपने मायके इलाहाबाद पहली बार अपने पतिदेव को लेकर गई । यूं तो इलाहाबाद का चप्‍पा-चप्‍पा मेरा घूमा हुआ है, बल्कि यूं कहें कि इलाहाबाद का चप्‍पा-चप्‍पा मेरी रग-रग में....मेरी सांसों में बसा है । लेकिन इनके साथ इलाहाबाद घूमने का आनंद अनोखा था । पहले दिन तो हम दुपहिया वाहन से घूमे....आनंद भवन, भरद्वाज आश्रम, विश्‍व-विद्यालय, कंपनी-बाग़ वग़ैरह ।

दूसरे दिन तय किया कि पतिदेव को सायकिल-रिक्‍शे की सवारी करवाएंगे और यहां की मशहूर चीज़ें खिलवायेंगे, जैसे लोकनाथ की लस्‍सी, चाट-चटपटे, दमआलू और सि‍विल लाइंन्‍स का डोसा वग़ैरह । बहरहाल...भैया-भाभी और मां की तमाम नसीहतों के साथ हम घर से रवाना हुए, सायकिल-रिक्‍शे पर चढ़े और निकल पड़े इलाहाबाद की सड़कों और गलियों की सैर करने । आप ज़रा कल्‍पना कीजिए....सर्दी का मौसम.....गुनगुनी नर्म-धूप, ठंडी हवा की सुखद छुअन, गली के मोड़ पर बैठे चुरमुरे वाले से दो चुरमुरे बनवाए । रिक्‍शे पर सवार होकर चुरमुरे के चटखारे लेकर चल पड़े ।

अहा...आंखों के सामने फिर तिर आया है सुंदर पूरा इलाहाबाद, जमना बैंक रोड से रिक्‍शा गुज़र रहा है । एक ओर मंद रफ्तार में चलते हुए वाहन । दूसरी तरफ मंथर गति से बहती हुई जमना नदी........जमना जी को छूकर जो ठंडी हवा आ रही है वो कानों में जैसे कोई सुंदर गीत गा रही है । हम दोनों अनायास ही मुस्‍कुराए और बतायाए जा रहे हैं । जो लोग इलाहाबाद नहीं गए उन्‍हें बता दें कि जमना-बैंक रोड के एक तरफ जमना जी अपनी रफ्तार से बहती हैं । ये सड़क काफी ऊंची है । और सड़क और जमना जी के बीच में जो ढलान वाला हिस्‍सा है, उसमें क़तार से जगह जगह चूड़ी बिंदी टिकुली और छोटी छोटी पूजा सामग्री वाली दुकानें, मंदिर और मछुआरों के छोटे-मोटे इक्‍का-दुक्‍का झोपड़ीनुमा घर हैं । जमना के किनारे स्थित इन मंदिरों से हर वक्‍त भजन के सुर गूंजते रहते हैं । आप जब भी उधर से गुजरें, तो ख़ासतौर पर हरिओम शरण का वो भजन...'दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया' और 'रामजी के नाम ने तो पाथर भी तारे' या फिर अनूप जलोटा का वो भजन...'तन के तंबूरे में' और भी तमाम हनुमान स्‍तुति या बजरंग बाण आपको सुनने को मिल जायेंगे ।

यमुना के किनारे एक तरफ भक्ति-रस में डूबा संसार है तो दूसरी तरफ जमना-बैंक रोड के समानांतर घनी बस्‍ती है । ढलान-नुमा गलियों गलियों में बस बहुत पुराना इलाक़ा । जो कीडगंज के नाम से मशहूर है । और कीडगंज से सटा हुआ बहुत पुराना मुहल्‍ला मुट्ठीगंज और बलुआघाट । और कीडगंज में ही बीच वाली सडक पर चाट और गुलाबजामुनों की दुकानें हैं । वहां के कुल्‍हड़ों में खाए जाने वाले गुलाब-जामुन मुंह में कुछ अलग ही मिठास घोलते हैं । और उसी बीच वाली सड़क पर 'बेनी' की समोसों वाली दुकान थी । जिसके ( आलू और मटर वाले ) समोसे बड़े मशहूर थे । जिन्‍हें हम भाई-बहन खूब चटखारे लेकर खाया करते थे । इस वक्‍त भी उन्‍हें याद करके मुंह में पानी आ रहा है । अब पता नहीं वो दुकान है या नहीं ।

इन्‍हीं गलियों के बीच-बीच में पंडों के बड़े-बड़े घर हैं जिनमें आपको चांदी से सजी बग्घियां देखने मिल सकती हैं । मतलब ये कि उनकी रईसी भरपूर है । यहीं पर अखाड़े में पहलवानी करते पंडे भी दिख जायेंगे । बहरहाल, हम जमना बैंक रोड के किनारे फैली बस्तियों का नज़ारा  देखते हुए, कैंट एरिया को पार करते हुए, मिन्‍टो पार्क देखते हुए पहुंचे मनकामनेश्‍वर मंदिर । जो ठीक जमना जी की गोद में स्थित है । जहां पूजा करके असीम शांति मिलती है । इसी मंदिर से सटा हुआ अकबर द्वारा निर्मित ऐतिहासिक किला है । जिसका निर्माण 1584 में हुआ था । मंदिर के ठीक बाहर पत्‍थर की चौकीनुमा एक जगह पर हम बैठे । बंधी हुई गोमाता से थोड़ा बोले-बतियाए । वहीं कुछ तस्‍वीरें खींची और सीढियां उतरते हुए पहुंच गये जमना जी के पावन-स्‍पर्श हेतु । मंदिर के नीचे बनी सीढियां जमना जी के पावन स्‍पर्श से रोज़ सराबोर होती हैं । हम भी वहां घंटों बैठे और दूर तक बहती हुई जमना नदी को निहारते रहे । तब तक सूरज भी पश्चिमायन हो चुका था ।

सर्दी के तीसरे पहर की नरम धूप जमना तट पर सेंकते हुए मुझे याद आ गयी ( शायद विद्यानिवास मिश्र की ) वो कविता--'सूप पर पूस की धूप' । और मैंने सूप में तो नहीं लेकिन अपने मन में इस पूस की धूप को खूब गहराई तक समेट लिया, जिसमें पूस की धूप के साथ साथ पूरा इलाहाबाद शहर, अपनों की यादें बातें सब कुछ तरोताज़ा कर लिया । इससे पहले कि शाम ढले हम रवाना हो गए लोकनाथ के लिए ।

लोकनाथ की सैर से पहले इलाहाबाद के उस नामचीन नए ब्रिज का जिक्र करना जरूरी है जिस पर एक दिन पहले हम स्‍कूटर से सैर कर चुके थे । वो इलाहाबाद का अनोखा ब्रिज देश का बहुप्रशंसित ब्रिज माना जाता है । जिस पर चलने, घूमने, बैठने और खड़े होकर तस्‍वीर खिंचवाने का मज़ा अकथनीय है । jamna bridge ब्रिज के किसी भी छोर पर खड़े हो जाईये, दूर तक फैला जमना का हिलोरें मारता हुआ, कल-कल करता हुआ जल देखा जा सकता है । आप जब भी इलाहाबाद जाएं तो इस नये पुल पर जरूर जाएं । यहां बैठे एक देहाती दुकानदार से चुरमुरे और मूंगफली लेने से हम खुद को रोक नहीं पाए । jamna bridge1ये सब चल ही रहा था तब तक हमारे भईया भी यहीं पहुंच गए, और फिर तो कविताएं सुनने-सुनाने का वो दौर शुरू हुआ जो अंधेरा होने के बाद ही थमा । 

दरअसल इलाहाबाद ऐसा शहर है जहां हर मोड़ नुक्‍कड़ पर अपने और आत्‍मीय मिल ही जाते हैं, घंटों खड़े होकर बोलने बतियाने के
लिए । अगली कड़ी मैं मैं आपको बताऊंगी लोकनाथ में चटखारे लेने वाले उस यादगार दिन के बारे में । 

Thursday, January 22, 2009

पत्‍थरों के शहर में एक मासूम-सी ख़्वाहिश


रविवार की शाम घर पर रहें तो बहुत उबाऊ और उदास-सा लगता है । रविवार की शाम घर से बाहर जायें तो ट्रैफिक और भीड़भाड़ तंग करती है । सारा मुंबई शहर अपने 'वीक-एंड' को रंगीन बनाने के लिए हड़बड़ा-सा भागता दिखता है । सोमवार से शुक्रवार तक दफ्तर की भागदौड़ और 'वीक-एंड' पर.......(यहां के शब्‍दों में कहूं) तो 'एन्‍जॉय' करने की
भागदौड़ । आमतौर पर हम भीड़ से बचते ही हैं । पर इस रविवार पतिदेव ने कहा चलो एक अच्‍छी जगह चला जाए । पतिदेव अपनी योजनाओं में बेहद साहसिक और एडवेन्‍चरस होते हैं । इसलिए मेरा माथा ठनका....कहीं बहुत दूर तो नहीं चलना है ना, वरना लौटते-लौटते देर हो जाए और..........। फिर 'वीकएंड' फीका हो जायेगा । उन्‍होंने कहा कि एकदम पास में चलना है और तुमको मज़ा आ जायेगा ।

'कितनी देर में पहुंच जायेंगे'--मैंने पूछा ।
'साइंटिस्‍ट' महोदय का जवाब था--कुल सात मिनिट । बल्कि इससे भी कम । अब समझ नहीं आया कि इतने नज़दीक कौन-सी ऐसी जगह है, जहां मज़ा आ जाए । बहरहाल...मैंने सोचा कि चलो देखें, महाशय का 'सरप्राइज़' क्‍या है आज । फिल्‍म या थियेटर देखने की तो बाक़ायदा तैयारी करनी होती है, शॉपिंग का कोई 'मूड' नहीं है । किसी मित्र-परिचित के घर जाएं तो भी पहले से 'इन्‍फॉर्म' कर देना अच्‍छा रहता है । वरना दरवाज़े पर लगा 'ताला' मुंह चिढ़ाए तो कितनी खीझ होती है । ख़ैर पहुंचे तो पता चला कि ये ‘plant and flower exhibition’ में लेकर आए हैं । मुंबई महानगर-पालिका की ओर-से हर साल इस तरह की प्रदर्शनी आयोजित की जाती है । जिसमें ना केवल पौधों और वनस्‍पतियों का प्रदर्शन होता है बल्कि उन्‍हें ख़रीदा भी जा सकता है ।

ऐसी जगह पर आप सामान्‍यत: भीड़ की उम्‍मीद नहीं करते । क्‍योंकि ये कोई 'ग्‍लैमरस' आयोजन नहीं होता । लेकिन पहुंचते ही क़तार में लगना पड़ा । मुंबई में वैसे भी हर चीज़ के लिए क़तार होती है । बस से लेकर टॉयलेट तक हर चीज़ के लिए । अब पौधे देखने के लिए भी क़तार । बढि़या प्रदर्शनी थी । हर पौधे का वानस्‍पतिक-नाम लिखा गया था । उसकी विशेषताएं और नाज़-नखरों से परिचित कराने के लिए विशेषज्ञ मौजूद थे । और थी खूब सारी भीड़ ।

हरियाली से मुझे वैसे भी प्‍यार रहा है । असम में पैदा हुई हूं । हरे-भरे पहाड़ों और नैसर्गिक-सौंदर्य से आत्मिक-संबंध रहा है । उस के बाद उत्‍तरप्रदेश के अपने गांव का कच्‍चा-प्राकृतिक-सौंदर्य इस बड़े शहर में खूब-खूब याद आता रहा है । और इलाहाबाद भी । जहां घरों के आगे बगीचे की गुंजाईश होती है ।

जब अपनी ससुराल जाती हूं तो वहां लगे पौधों को देखकर मन ललच जाता है । काश कि ज़मीन पर घर हो..आगे पीछे जगह हो.....जिसमें बड़े ही जतन से बग़ीचा बनाया जाए । एक झूला डाला जाए । जिस पर पींगे भरते हुए पुराने फिल्‍मी गाने सुने जायें । ओह मैं तो सपनों में खो गयी ।

बहरहाल...पौधों की इस प्रदर्शनी को देखकर बग़ीचे की ख्‍वाहिश फिर हरी हो गई है । मुंबई में हम सातवीं मंजिल पर रहते हैं । इतने ऊपर केवल कुछ हैंगिंग पौधे ही लगाए जा सकते हैं । या फिर कुछ छोटे-मोटे गमले रखे जा सकते हैं जिनमें सजावटी पौधे लगाकर मन को तसल्‍ली दी जा सकती है । लेकिन आसमान पर टंगे हम.....बग़ीचे के सपने ही देख सकते हैं । या फिर बग़ीचों के लिए....शहर के तराशे हुए सार्वजनिक पार्कों में जा सकते हैं...बस ।

पौधों की इस प्रदर्शनी में कबूतरों और गौरैयों के लिए बाक़ायदा 'घर' भी बिक रहे थे । जिन्‍हें बगीचों में लगा लीजिये और दूर से पक्षियों की शरारतों को देखिए । सबसे रोचक ये लगा कि कई माता-पिता अपने बच्‍चों को पौधों और फूलों से परिचित कराने यहां लाए थे । वो फूल जिन्‍हें उन्‍होंने अपनी कोर्स की किताबों में देखा था...यहां जीवंत देख रहे थे । उनका संक्षिप्‍त परिचय बच्‍चों को दिया जा रहा था । कुछ लोग....जिनमें हमारे पतिदेव भी शामिल थे...अपने कैमेरों के साथ व्‍यस्‍त थे तस्‍वीरें लेने में । चूंकि भीड़ बहुत ज्‍यादा थी और मुंबई में 'आसमान में टंगे' घरों में रहने वाले लोग बग़ीचों की ख्‍वाहिश में यहां पर आए थे.....इसलिए ख़रीदी जबर्दस्‍त चल रही थी । लोग ख़रीद-खरीदकर अपनी गाडियों में गमले भर रहे थे ।

हमने भी कुछ पौधे ख़रीदे । इस तमन्‍ना में कि काश कभी हमारा भी अपना छोटा सा बग़ीचा हो । पत्‍थरों के शहर में ये है हमारी मासूम सी ख्‍वाहिश जिसे हम पूरा करके ही रहेंगे ।

पतिदेव की खींची तस्‍वीरें ये रहीं ।

  पीपल का बोनसाई

IMG_2111 सजावटी पौधा IMG_2113 कैक्‍टस IMG_2112 मनीप्‍लान्‍ट

IMG_2110 मनीप्‍लान्‍ट कांच के बीकर में

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गोरैया के घर

IMG_2108 गोरैया के घर कहां से ख़रीदें ।

IMG_2109 सजावटी पौधे की रंगत

IMG_2104 मेरा भी बगीचा होता

IMG_2103 महानगर की हक़ीक़त-हैंगिंग गमले

IMG_2102 किसी एक फूल का नाम लो

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'बतकही' कुछ दिनों से वाक़ई 'अनकही' बन गयी थी । इस अनकही को तोड़ने का प्रयास जारी रहेगा ।