डायरी के कुछ पन्ने : 'मां की बीमारी'
पिछले कुछ महीनों में मन जैसे भर-सा गया है । मां की बीमारी और फिर उनके अवसान के दिनों में मैंने जो डायरी लिखी उसके कुछ पन्ने यहां छाप रही हूं--ममता
मुझे लगता है कि उम्र के एक पड़ाव पर आकर हर कोई एकाकी हो जाता है । किसी बुज़ुर्ग को अगर क़रीब से देखें तो ये बात बड़ी गहराई से महसूस होती है । मैं जब भी अपनी मां को देखती हूं तो लगता है कि वो बड़ी अकेली हैं, बड़ी बेसहारा हैं, उनका बड़ा सा परिवार है, बेटे-बहू, बेटी-दामाद, नाती-पोते, नाती के भी बच्चे वे देख चुकी हैं । हाल ही में अपने एक और नवजात नाती यानी मेरे सुपुत्र को गोदी में खिलाकर निहाल होने का सुख पा लिया है ।
भैया के बच्चों, अनुवर्तिका और देवव्रत के साथ मां
फिर भी ना जाने क्यों उनकी आंखें जब-तब शून्य में ताकने लगती हैं । वे आंखें बंद करके पलके झपकाने लगती हैं तो लगता है कि वो सो रही हैं । दरअसल वो सो नहीं रही होती हैं बल्कि उस वक्त वो दुनिया-जहान की बातें सोचती हैं, बीते कल को याद करती हैं, वर्तमान की खट्टी-मीठी
देखते ही देखते उनका ‘रौबदार’ रूप एक ‘निरीह’ रूप में ढल गया । बचपन पीछे छूट गया, हम बड़े हो गए । हम भाई-बहनों को उंगली पकड़कर सब-कुछ सिखाने वाली मां हमीं लोगों से सीखने लगीं ।
घटनाओं के भंवरजाल में डूबती-उतराती रहती हैं, बेटे-बहुओं के भविष्य के बारे में सोचती हैं, मेरे बारे में सोचती हैं और जाने किस-किस के बारे में सोचती हैं । हालांकि अब वो कम बोलती हैं लेकिन उनकी आंखें जैसे हर वक्त कुछ कह रही हों । इस समय वो बड़ी बीमारी से जूझ रही हैं । मेरे पिताजी जिन्हें हम ‘बाबा’ कहते थे, बहुत जल्दी ही उन्हें अकेला छोड़ इस असार-संसार को अलविदा कह गए थे । हम कई भाई-बहन मिलकर उनका संबल बने । लेकिन मुझे लगता है कि वे हम-सबका भरा-पूरा साथ पाकर भी भीतर से निपट अकेली ही रही हैं । धीरे-धीरे उनका अकेलापन गहराता ही गया है ।कई बार उनके अतीत को जब हमने कुरेदने की कोशिश की
तो वे बड़ी भावुक हो उठतीं । पिताजी से जुड़ी तमाम यादें बांटते हुए मुस्करा उठतीं, कभी रूंआसी हो उठतीं । और बातों-बातों में ये जता देतीं कि हमारे ज़माने में पति-पत्नी का प्यार सिर्फ़ चार-दीवारी के भीतर क़ैद होता था । घर-परिवार के लोग जान भी नहीं पाते थे कि ये लोग आपस में कितना प्यार करते थे । वे बतातीं हैं कि जब वो ब्याहकर आईं थीं तो सिर्फ़ तेरह साल की थीं । बड़ा परिवार, ज़मींदारी-प्रथा, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं को निभाते, धन-दौलत को संभालते-संभालते कई बच्चों की मां बन गयीं ।
किशोरावस्था से कब उनका यौवन आया, कब बुढ़ापा और कब बुढ़ापे से वे जर्जर हो गईं, उन्हें पता ही नहीं चला । हर दौर में बड़ी कुशलता से अपनी जिम्मेदारी निभाती रहीं वे । कभी सुघड़-पतिव्रता पत्नी बनीं, कभी कुशल बहू, ममतामयी मां और फिर सास, दादी, नानी सब-कुछ बनीं । जिंदगी के हर किरदार को उन्होंने बड़े अच्छे-से निभाया । अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, पैरों पे खड़ा किया । और जब बन गईं सास, तो फिर-से दौर आया पालन-पोषण का, अपने पोती-पोतों की परवरिश की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आई । कभी उन्होंने ‘उफ़’ नहीं की । हर दौर की जिम्मेदारी को उन्होंने स्वयं अपने ऊपर ओढ़ लिया ।
मैं सोच रही हूं कि उन्होंने अपने लिए कब जिया । अपने लिए कब खुश हुईं । क्या कभी उन्होंने खुद के लिए कोई सुख बचाकर रखा । कोई ऐसी खुशी उन्होंने अपने भीतर सहेजी जो सिर्फ उनसे जुड़ी हो । यहां तक कि धन-वैभव भी उन्होंने सबको बांट दिया । बार-बार मेरे ज़ेहन में ये बात आ रही है क्या मेरी-मां सिर्फ़ दूसरों के लिए ही जीती हैं ।
कभी-कभी जब नाती-पोतों को किसी ग़लती पर डांटतीं और भाभी को अच्छा नहीं लगता तो हम उन्हें सलाह देते कि आपको टोक-टाक करने की ज़रूरत क्या है । यही बात हम उन्हें तब समझाते थे जब घर में कुछ उनकी मरज़ी या इच्छा के खिलाफ़ होता और वो अपनी नाराज़गी जाहिर
करतीं । यहां तक कि उन्हें पड़ोसियों की भी चिंता होती थी ।
मुझे लगता है कि वे सिर्फ़ अपनी ही चिंता नहीं करतीं थीं, बाक़ी सारे लोगों की चिंता करती थीं, किसने समय पर खाना नहीं खाया, कौन समय पर घर नहीं आया, किसकी तबियत ख़राब है, किसको दवा की ज़रूरत
है । लेकिन जब अपनी बारी आती, तो सोचने के लिए उनके पास कुछ होता ही नहीं था । शायद उन्हें लगता था कि उनके बारे में कोई और
सोचे । लेकिन उन्हें ये बात समझ नहीं आती थी कि उनके ज़माने में और आज के ज़माने में फ़र्क़ है । पहले के लोग सिर्फ़ परिवार के लिए जीते थे । आज के ज़माने में पहले अपने लिए फिर परिवार के लिए जिया जाता है ।
मैंने अपने बचपन में अपनी मां का एक रूप देखा था जो बड़ा ही दबंग
था । बिल्कुल हेड-मिस्ट्रेस जैसी दिखती थीं । हम भाई-बहन उनकी निगाहों का सामना करने से डरते थे । हालांकि मैं उनकी सबसे लाड़ली
थी । कई बार तो वो छड़ी से सबको मारती थीं तो मैं उनसे पूछती थी कि मुझे भी मारोगी । इस पर वो बोलती तो कुछ नहीं थीं लेकिन मुझे मारती नहीं थीं । क्योंकि मैं बहुत शरारती नहीं थी । मुझे तो उनकी मार नहीं याद है लेकिन मेरे भाई-बहनों को बड़ी मार पड़ी है । देखते ही देखते उनका ‘रौबदार’ रूप एक ‘निरीह’ रूप में ढल गया । बचपन पीछे छूट गया, हम बड़े हो गए । हम भाई-बहनों को उंगली पकड़कर सब-कुछ सिखाने वाली मां हमीं लोगों से सीखने लगीं । हमीं लोगों से हर क़दम पूछ-पूछकर रखने लगीं । किसी के घर जाना है तो भैया से पूछतीं—जायें कि नहीं । कुछ खाने का मन हो, तो दूसरों से पूछतीं थीं कि आज ‘पकौड़ी’ या ‘कढ़ी’ खाने का तुम्हारा मन है क्या । बना ली जाए क्या ।
मुंबई से जब मैं जाती थी तो अकसर वे मुझसे कढ़ी खाने को ज़रूर पूछतीं थीं—‘ममता कढ़ी खाने का मन है क्या’ । पूछने का दूसरा तरीक़ा होता था—‘मेहमान’ (मेरे पति महोदय) के लिए कढ़ी बना दें क्या । और मैं सीधा-सा जवाब देती—‘नहीं नहीं कहां परेशान होंगी, सादा खाना भाभी जो बनायेंगी, वही खा लेंगे, आप कहां परेशान होंगी ।’ लेकिन बाद में मुझे ये अहसास हुआ, कि उनकी खुद की भीतर से इच्छा होती थी । लेकिन पुरानी प्रथाओं और मान्यताओं को मानने वाली मेरी मां स्वेच्छा से अपने लिए कुछ नहीं बनाती थीं । ये बात मुझे बहुत बाद में महसूस हुई । जब मुझे इस बात का अहसास हुआ तो मैं उनसे कहने लगी कि आखिर आप अपने लिए कुछ क्यों नहीं करतीं । आप दूसरों के बहाने से अपनी इच्छा क्यों पूरी करना चाहती हैं । आप खुद अपनी इच्छा पूरी कीजिए ना । इस पर उनका जवाब होता था—‘अगर अपने लिए जिए होते, तो सोने की अनगिनत अशर्फियां मेरे पास होतीं । अपने लिए मैंने क्या बचाया । पहले तुम लोगों की दादी जो कहती थीं वो करते थे, फिर तुम्हारे पिताजी और अब बेटे जो कहते हैं वो करती हूं ।’
--दूसरे भाग में जारी
डायरी के पन्ने लग नहीं रहे के ये केवल आपके हैं..ये तो अपने घर-परिवार का चल-चित्र है...समय की दौड़ के आगे कोई धावक कहाँ टिका है...सुलेखन के लिए बधाई और आभार...
ReplyDeleteमुझे लगता है जैसे मैं अपनी ही कोई कहानी/हक़ीकत आपके द्वारा पढ रही हुं। बढिया प्रभावशाली लेखन। माँ आख़िर माँ होती है। उसकी बराबरी कोई नहिं कर सकता। आपके दर्द के साथ ही मुझे समझो मेरी बहन।
ReplyDeleteAapka lekhan pasand aaya.
ReplyDeleteदेखते ही देखते उनका ‘रौबदार’ रूप एक ‘निरीह’ रूप में ढल गया ।..... हम भाई-बहनों को उंगली पकड़कर सब-कुछ सिखाने वाली मां हमीं लोगों से सीखने लगीं ।
ReplyDeleteममता जी,इन पंक्तियों तक आते आते बहुत सी स्मृतियाँ उमड़ आईं.आत्मीय और पहचाना सा लगा सब कुछ.सोचा तो ये भी कि मां के मेहमान संबोधन की भी तो एक दास्तान होगी...अपनी एक कविता साझा करने से भी रोक नहीं पा रहा ख़ुद को.विविध भारती में आपको सुनता ही रहता हूँ.बड़ी अच्छी है आपकी आवाज़.बेशक ये अच्छी आवाज़ सुंदर प्रस्तुतियों से ही प्रभावित करती है.
कविता
रहना माँ से दूर...
जाने कितनी पुरानी बात है
मैं कहीं से आता था घर
तो साँकल से दरवाज़ा पीट पीटकर
ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था
अम्मा ओ..
काफ़ी देर बाद अम्मा दौड़ती हुई आती थी
उसके हाथों में हमेशा कोई अधूरा काम होता था
चेहरे में जल्दी नहीं सुन पाने का अपराधबोध
कभी कभी वह बिना वज़ह नही सुन पाती थी मेरी आवाज़
तो भागकर आते हुए रो पड़ती थी
सहमी होती थी दरवाज़ा खोलते हुए
जाने कितनी पुरानी बात बता रहा हूँ मैं
माँ को अब देखना सुनना दोनों कठिन हो गए हैं
वह कभी कभी बताती है सकुचाकर
उसे किसी किसी दिन मेरे पुकारने की आवाज़ सुनाई देती है
वह घुटकर रह जाती है
मैं अनसुनी करता हूँ उसकी यह बात
क्योंकि भावुक हो जाने में मुझे हल्कापन सा लगता है आजकल
पर एक दिन ऐसा हुआ जिसकी मुझे ख़ुद से उम्मीद नहीं थी
मैं शाम को ऑफ़िस से आया अपने सरकारी क्वार्टर
जैसे किसी ने धकेल दिया मुझे पुराने दिनों में
मैं ज़ोर ज़ोर से चिल्लाया कई बार
अम्मा ओ...
बाद में मैं पसीना पसीना था इस डर से
ऐसा सपने में नही किया मैंने
क्या होगा अगर पड़ोसियों ने सुन ली होगी मेरी पुकार
मैं घंटों बिसूरता रहा अकेले घर में
जाने कौन सा ऋण चुकाने मैं पैदा हुआ
रहता हूँ माँ से इतनी दूर....
-शशिभूषण
ओह! मुझे अपने बब्बा याद आ रहे हैं। मालिक कहाते थे कुटुम्ब में। पर अपने लिये कभी नहीं जिये। सब कुटुम्ब या समाज पर न्योछावर।
ReplyDeleteवे गये और लगभग सौ लोगों का कुटुम्ब बिखर गया! :-(
मुझे अपनी मां की याद आ गयी।
ReplyDeleteकितना प्रांजल लेखन है । माताओं को ,उनकी स्म्रुति को प्रणाम।
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