उत्सव का मौसम या शोर का मौसम
इन दिनों नवरात्र चल रहे हैं और कहीं पर दुर्गा-पूजा का उत्साह है तो कहीं पर गरबा की धूम । ऐसे में मुंबई का नज़ारा ही कुछ और होता है । हालांकि आजकल मुंबई की तर्ज़ पर छोटे-शहरों में भी गरबा और डांडिया का आयोजन होने लगा है । लेकिन नवरात्र के दिनों में यूं लगता है मानो सारा शहर गरबा कर रहा हो । मुंबई में मैंने एक चलन और देखा कि जहां पर दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना होती है, वहां पर भी लोग गरबा करते हैं । अपने बचपन के दिनों में असम में मैंने देखा था कि 'देवी' के समक्ष जो नृत्य होता है वो एकदम अलग तरह का होता है, बड़ा ही पावन होता है । मोटे तौर पर उसकी एक झलक आप संजय लीला भंसाली की 'देवदास' और प्रदीप सरकार की 'परिणिता' में देख चुके
हैं ।
बहरहाल मैं अपनी एक आपबीती आप तक पहुंचाना चाहती
हूं । अचानक मेरी तबियत बिगड़ गयी और हम डॉक्टर के यहां जा रहे थे । चारकोप के इलाक़े में पहुंचे तो देखा कि 'ट्रैफिक-जाम' है । मैंने सोचा कि इस सड़क पर तो कभी ऐसा होता नहीं है । अचानक ये क्या । गाडि़यों की क़तार सरकी तो पाया की इस ओर की सड़क को चार-छह कुर्सियों के ज़रिये रोका गया है और अब दोनों तरफ के वाहन सड़क के एक ही हिस्से से आ-जा रहे हैं । देखा तो पता चला कि कुछ लड़के भीड़ बनाकर खड़े हैं । और सिर्फ दिखावे के लिए ट्रैफिक क्लियर करने की कोशिश कर रहे हैं । असल में सड़क का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं लड़कों ने तकरीबन आठ बजे रात से 'गरबा' खेलने के लिए बंद कर रखा था और इस वजह से कितने सारे लोगों को परेशानी हो रही थी ।
सामने देवी जी की विशाल मूर्ति । भक्तों का तांता । और उससे थोड़े आगे गरबे का ये ताम-झाम । गाडियों की चिल्लपों और ट्रैफिक जाम की खीझ़ । लगा कि इस सड़क से आकर हमने ग़लती कर दी । लेकिन किसी और सड़क से जाते तो भी कोई गारन्टी नहीं थी कि ऐसा नज़ारा उस तरफ नहीं होता । जुलूस, विसर्जन, बारात वग़ैरह के लिए तो ट्रैफिक जाम की बात समझ में आती है । पर बीच सड़क पर गरबा खेलना और वो भी ट्रैफिक को डाइवर्ट करके...कहां तक उचित है । ऐसे में हम डॉक्टर के यहां देर से पहुंचे । डॉक्टर तो मिले पर रास्ते में जो तकलीफ़ झेलनी पड़ी, वो किसी यातना से कम नहीं थी । मन में यही ख़्याल आया कि मेरी छोटी मोटी समस्या तो ठीक है, पर अगर इसी रास्ते से कोई बुज़ुर्ग या कोई गर्भवती या गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति अस्पताल ले जाया जा रहा होता तो क्या होता ।
हम लोग अपने उत्सव और मौज-मस्ती में इस क़दर मगन क्यों हो जाते हैं कि सार्वजनिक रूप से असुविधा पैदा करने लगते हैं । गणेशोत्सव के बाद से मुंबई का शोर अचानक बढ़ जाता है । उसके बाद नवरात्र और फिर दीपावली । आखिरकार नया साल । और फिर होली । यानी एक के बाद एक 'शोर' करने के नये बहाने । इस साल तो इन्हीं दिनों मुंबई में चुनाव-प्रचार भी होगा । अचानक बिना चेतावनी के, फूटने वाले पटाख़े किस तरह से 'इरीटेट' करते हैं....आप स्वयं भुक्त-भोगी होंगे । गणपति-विसर्जन के दौरान पटाख़ों के इस शोर से मेरे नवजात-शिशु को बड़ी असुविधा हुई । वो बार-बार चौंक जाता । रूंआसा हो जाता । डर जाता था । और ये स्थिति दीपावली तक कायम रहने वाली है ।
मुंबई के उत्सव तो कभी-कभी बेहद तकलीफ़देह हो जाते हैं । आप बताईये आपके शहरों में क्या आलम है ।
गरबा नृत्य में साधना और आराधना दोनों का ही अकाल हो गया है ...माँ पूजा के नाम पर सिर्फ तमाशा देखने को विवश हैं ..!!
ReplyDeleteसब जगह ऐसा ही हाल है। रास्ता रोकना तो लोगों ने अपना मौलिक अधिकार समझ लिया है और पुलिस व नागरिक प्रशासन ने भी इसे मान्यता दे दी है।
ReplyDeleteसब जbगह यही हाल है मगर अपना शह्र जरा शान्त प्रिय है और शहर की सढकें खुली हैण हर ब्लाक गली मे एक एक ग्राऊँड है ऐसे आयोजन करने के लिये इस लिये तक्लीफ नहीं होती शुभकामनायें
ReplyDeleteममता जी आलम तो सब जगह एक सा है। इस मामले में तो हम सब एक हैं। इसका निदान तभी हो सकता है जब इन तकलीफों और समस्याओं को आयोजक स्वयं से जोड़कर ऐसी कार्यक्रमों का फैसला लें। पर ऐसी जागृति आएगी, मुझे नहीं लगता। पर निदान यही है और कुछ नहीं।
ReplyDeleteशहरों में तो जगह की कमी से अब यह सब होना ही है। कुछ दिनों पहले गणेशजी के पण्डालों ने सड़कें रोकी अब माताजी के पण्डालों ने..
ReplyDeleteगाँवों में फिर भी अभी थोड़ी बहुत गरबा संस्कृति बची हुई है, कबी गुजरात के किसी छोटे गांव में नवरात्रि के दौरान जाकर देखिये, आप जान कर दंग रह जायेंगी कि गरबा कहते किसे हैं!
शहरों में जो दिखता है वह गरबा नहीं है..
त्योहारों पर देखा गया है की हम जोश में अपना होश खो बैठते हैं...दूसरों की सुविधाओं का ख्याल नहीं रखते बल्कि त्यौहार की आड़ में बहुत से गलत काम भी करते हैं...कब समझेंगे हम?
ReplyDeleteनीरज
कम से कम यहां चेन्नई में यह शोर त्योहारों में कम ही होता है.. हां मगर राजनीतिक दल कुछ ज्यादा ही शोर मचाते हैं..
ReplyDeleteजादू को प्यार दिजियेगा.. :)
सच मे बहुत बुरा हाल है मुंबई का....अपना खयाल रखिए और बेटे की कुछ कहानी लिखिए....उसे हम सब का आशिष दीजिए....
ReplyDeleteहमारे घर के पास हनुमान मन्दिर में तो नित्य किर्र किर्र करते कानफोड़ू भजन बजते हैं - फिल्मी तर्ज पर!
ReplyDeleteममता जी, मुझे लगता है की मैं पहली बार आपके BLOG पर टिप्पणी कर रहा हूँ. आपने जो विषय उठाया है वो बिलकुल ही सही है. आज के युवा शायद इस बात को समझते नहीं या समझ कर भी नहीं समझते हैं. अगर ऐसा है तो वो खुद के लिए भी परेशानी खडी करने जा रहे हैं.
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