डायरी के कुछ पन्ने-'मां का विदा हो जाना'
पिछले कुछ महीनों में मन जैसे भर-सा गया है । मां की बीमारी और फिर उनके अवसान के दिनों में मैंने जो डायरी लिखी उसके कुछ पन्ने यहां छाप रही हूं । पिछले पन्ने पर मैंने मां की बेबसी, बीमारी और उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को उजागर किया था । अब आगे...
--ममता
इन दिनों मां बहुत बीमार चल रही हैं । हम इलाहाबाद जाने की तैयारी कर रहे हैं । उनसे मिलने की इच्छा तीव्र होती जा रही है । अपने छोटे-से बच्चे को लेकर जाने में उहापोह चल रही है कि कैसे जाएं, कब जाएं । मां की हालत काफी गंभीर हो चुकी है । टिकिटों की व्यवस्था की ही जा रही है कि अचानक ख़बर आई है कि वो अब इस संसार में नहीं रहीं ।
माई संसार में नहीं रहीं । हमें मालूम है कि वो पंच-तत्वों में विलीन हो गयीं लेकिन फिर भी उनके होने का अहसास ऐसा गहरा है, लग रहा है कि वो मेरे पास हैं । कभी उनकी आवाज़ सुनाई देती है । लगता है वो बुला रही हैं—‘कहो ममता, अबकी कब अऊबू । बच्चा कैसन अहै, अ मेहमान ? नित नित का आसीरबाद’ । कभी कहती हैं—‘बेटवा को ना, माथे के
मां के अंत के साथ तमाम पौराणिक ज्ञान का अंत हो गया । तमाम आध्यात्मिक बातों का अंत हो गया । उन तमाम नुस्खों का अंत हो गया, जो वे हमें घर परिवार के लिए बताया करती थीं ।
बीचोंबीच काला टीका ना लगाओ । बगल में लगावाकर ।’ ‘सोवत की अकेल जिन छोड़ा करा’ । ‘रोज़ संझा के नजर उतार देवा करा ।’ बेटे की परवरिश और परंपराओं-त्यौहारों से जुड़ी हुई और भी तमाम बातें । जो ना तो हमें डॉक्टर बतायेंगे ना ही हमारे परिवार के और कोई सदस्य ।
मां के अंत के साथ तमाम पौराणिक ज्ञान का अंत हो गया । तमाम आध्यात्मिक बातों का अंत हो गया । उन तमाम नुस्खों का अंत हो गया, जो वे हमें घर परिवार के लिए बताया करती थीं । पहले किसी भी तरह के पारंपरिक ज्ञान की कोई ज़रूरत पड़ती थी तो फौरन उन्हें फोन लगा लिया जाता था । और पक्की जानकारी मिल जाती थी । लेकिन अब इस तरह की कोई भी जानकारी पाने के लिए कोई ऐसा सूत्र नज़र नहीं
आता । बेटे को हिचकी आती थी और मैं उससे कहती थी कि नानी याद कर रही हैं तो वो मुस्कुरा देता था । लेकिन अब जब अनायास खूब रोता है तो मैं उससे पूछती हूं, बेटा कौन याद कर रहा है, बेटा तो कोई जवाब नहीं देता लेकिन मेरी आंखें धार-धार बरसने लगती हैं ।
बार-बार लगता है—‘मां जिस रूप में भी थीं, चाहे जितनी बीमार थीं, थीं तो एक संबल के रूप में । बहुत बड़ा सहारा थीं वो । पूरे परिवार को एक सूत्र में जोड़ने वाली थीं । उनके जाने से वो संबल टूट गया । वो सूत्र भी कमज़ोर हो गया, जिससे पूरा परिवार जुड़ा हुआ था । परिवार में किसी
कोई ऐसा गीत गुनगुनाने की कोशिश करती हूं जिसमें ‘मां’ शब्द ना आए । लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे वो सामने आकर खड़ी हो गयी हैं और होंठ कांपने लगते हैं, आंखें भीग जाती हैं
की किसी से खटपट हो जाए तो वे जोड़ने का काम करती थीं । उस शख़्स की अनुपस्थिति में समझाती थीं कि फलाना मन का बहुत अच्छा है । उसको फ़ोन कर लिया करो, बातें कर लिया करो । उनका भले ही किसी ने दिल दुखाया हो, लेकिन वो किसी का दिल नहीं दुखाती थीं । एक बार भैया की तबियत ख़राब हो गयी थी, जिनके साथ वो इलाहाबाद में रह रहीं थीं । भैया को हैजा हो गया था, मां खुद भी बीमार चल रही थीं । भैया को असंख्य उल्टियां हो रही थीं । और मां अपनी बीमारी को, अपनी जर्जर अवस्था को अनदेखा करते हुए घर से निकलीं और दौड़ पड़ी डॉक्टर को बुलाने । डॉक्टर नहीं मिले, तो रिक्शा ले आईं ताकि भैया को किसी और डॉक्टर के पास ले जाया जा सके । फिर तो भाभी और परिवार के लोग जमा हो गये, लेकिन तुरंत जो हिम्मत बीमारी के बावजूद उन्होंने दिखाई उससे भैया का स्वास्थ्य तुरंत ठीक किया जा सका ।बड़ी जीवट की थीं मेरी मां । उनकी इच्छा-शक्ति बेहद मज़बूत थी इसलिए कई बार वो गंभीर-अवस्था तक पहुंचकर भी पुन: स्वस्थ हो गयीं । घर-परिवार के लोगों की बीमारी में रात-रात भर अपनी नींद गंवा देने वाली मेरी मां ने जाने से पहले वाली रात बैठकर बेचैनी में बिताई । सोईं नहीं रात भर । जिस दिन वे गईं, हॉस्पिटल जाने से पहले अपना दैनिक-कर्म स्वयं किया । यहां तक कि नहाना-धोना भी अपने हाथों से किया । घर वालों के सहारे से । इतनी बड़ी बीमारी के बावजूद, जैसे कहीं जाने के लिए अपने-आप तैयार होती थीं, उसी तरह से तैयार हुईं । और घर से डॉक्टर के पास गयीं । लेकिन डॉक्टर के पास से घर तक सकुशल नहीं पहुंच सकीं । अपनी इच्छा के मुताबिक़ घर के पास मंदिर के सामने उन्होंने संसार से विदा ली ।
अपना चेहरा घुमाओ, पीछे मुड़कर देखो तो लगता है, मां खड़ी हैं । अगल-बगल किसी भी तरफ़ देखो, तो जैसे मां यहीं पर हैं । इस वक्त कुर्सी के पीछे भी वे खड़ी हैं । फिर जैसे कंप्यूटर की स्क्रीन पर आ गयी हैं । लगता है वे हमें देख रही हैं । हम क्या कर रहे हैं, बस अभी कोई सवाल वो पूछ बैठेंगी । पीछे मुड़कर देखते हैं, कोई नहीं दिखता । सिर्फ उनका अदृश्य अहसास । और मैं उदास हो जाती हूं । डर जाती हूं । उनकी यादों से उबरने की कोशिश करती हूं । कोई ऐसा गीत गुनगुनाने की कोशिश करती हूं जिसमें ‘मां’ शब्द ना आए । लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे वो सामने आकर खड़ी हो गयी हैं और होंठ कांपने लगते हैं, आंखें भीग जाती हैं, और वो कहती हैं—‘तुम क्यों इतनी दुखी हो, छोटा- बच्चा है । उसका ध्यान रखो । तुमने तो मेरे लिए बहुत किया ना ममता, बेटी होकर इतना क़र्ज़ा दे दिया है, अब कैसे उतारूंगी । देखो बेटों से कह आईं हूं, शायद वो तुम्हारा क़र्ज़ा उतार देंगे तो मैं निश्चिंत हो जाऊंगी’ ।
दरअसल मैं जब भी इलाहाबाद जाती तो उनके हाथ में कुछ पैसे पकड़ाकर आती । उनकी जितनी भी दवाईयां-टॉनिक होते, ख़रीदकर आती । उनसे रोज़ पूछती थी, क्या खाना है, लाकर देती थी । डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन देखकर उन्हें सलाह देती थी । ये टॉनिक है, ये रोज़ लेना । ये दवा है इतने ही दिन खाना । और जो भी उनकी पसंद की चीज़ होती थी वो उन्हें खिला देती थी । बस इतने में ही वो गदगद हो जाती थीं । निहाल हो जाती थीं । ऐसा नहीं है कि भाई-भाभी उनका ध्यान नहीं रखते थे । लेकिन मेरी इन छोटी-छोटी कोशिशों का सुख उनके लिए बड़ा अनमोल था ।
शशिभूषण जी, पिछले पन्ने पर आपने टिप्पणी में जो कविता भेजी, वो इतनी मर्मर्स्पशी थी कि उसे पूरा पढ़ने से पहले ही मेरी आंखें डबडबा
गयीं । जिन लोगों ने अपने विचार दिए, उन सभी का आभार ।
--तीसरे भाग में जारी
‘मां जिस रूप में भी थीं, चाहे जितनी बीमार थीं, थीं तो एक संबल के रूप में । बहुत बड़ा सहारा थीं वो । पूरे परिवार को एक सूत्र में जोड़ने वाली थीं । उनके जाने से वो संबल टूट गया । वो सूत्र भी कमज़ोर हो गया, जिससे पूरा परिवार जुड़ा हुआ था ।
ReplyDeleteमाँ होती ही ऐसी है।
आपने हमें भी भावुक कर दिया।
मेरी संवेदनाएँ।
शशिभूषण की की कविता वाकई में मर्मस्पर्शी है
मैं घंटों बिसूरता रहा अकेले घर में
स्तब्ध
बी एस पाबला
माँ तो माँ ही है, उस से अधिक कोई नहीं। उन का विदा होना सब से बड़ी रिक्तता देता है। ऐसा ही जैसे सर से छत छिन गई हो।
ReplyDeleteमाँ ही एक ऐसी है जिसे हर साँ स के साथ याद किया जाता है और बेटिओं के लिये तो मायका माँ के साथ ही होता है मार्मिक अभिव्यक्ति है । शुभकामनायें आशीर्वाद्
ReplyDeleteमाँ तो माँ ही है जैसी भी हो .... जिस उम्र की हो ........ उसका साथ होना ही हिम्मत दे जाता है ............ अपनी परवा न कर सब क ख्याल बार माँ ही रख सकती है ...... बहुत मार्मिक पोस्ट है आपकी .........
ReplyDeleteममता जी प्रणाम ,सबसे पहले तो ..ब्लॉग संसार में आपका स्वागत है ,ममता सिंह ,नाम पढ़ते ही आपकी आवाज सुनाई दी, खोला तो आप ही थी ,दरअसल जब भी वक़्त मिलता है बस दोपहर में विविध भारती के साथ सुनती रहती हूँ ....इसलिए आप नई तो नहीं हेँ ....मेरे लिए ...माँ पर बेहद भावुक आपकी यादों को और लेखन को सर माथे पर क्या कहूं इसी एक सितम्बर को अपनी माँ पर एक पोस्ट लिखी है देखें ...आभार
ReplyDeleteमाँ के सहारे की हमेशां ही जरुरत रहती है बिन माँ के घर का आंगन बंजर जमीं सा है !!! बहुत सुन्दर पोस्ट है !!!
ReplyDeleteममता जी, अपनी माँ की यादें हमसे बाँटने के लिए आभार। पढ़ना बहुत अच्छा लगा। मैं भी इस माँ शब्द में उलझी हुई हूँ और इसके साथ जुड़ आए शब्द बुढ़ापे से भी। हर दिन बदलाव देख रही हूँ और दंग होती हूँ, कभी लगता है कि उम्र मनुष्य व रिश्तों को परिवर्तित कर देती है। कल जो माँ थीं वे आज बेटी सी जान पड़ती हैं। और हाँ, अपनी बेटियों को भी अपनी माँ बनते देखती हूँ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
पिछला लेख पढ़ने के बाद अगले का इंतजार कर रहा था.. शानदार लेखन की तारीफ नहीं करूंगा, शानदार लिखने वाले बहुत हैं यहां.. मगर कम ही ऐसे हैं जो सीधे दिल तक उतर कर किसी बिछड़े की याद दिला जाते हैं..
ReplyDeleteशायद सारी मायें ऐसी ही होती हैं.. पिछला लेख पढ़कर अपनी नानी की याद हो आयी थी.. कमोबेश कुछ ऐसा ही जीवन रहा था उनका.. आपके मन में जो बात घूम रही है उसे मां की ही बात माने.. जादू का ख्याल रखें और उसकी नानी को चंद कहानियों में हमेशा उसके लिये जिंदा रखें..
मुझे आपने यादों में ढ़केल दिया.. घर में सबसे छोटा होने के कारण मैं सबसे ज्यादा घर में रहा हूं.. हमेशा मम्मी से चिपका हुआ.. बड़े होने के बाद भी कहीं भी जाओ तो मम्मी के साथ, नहीं तो नहीं.. मगर समय ने कुछ ऐसा खेल खेला की अब साल में एक बार मां-पापा के दर्शन हो जायें तो यह भी बहुत है.. मन बहुत उदास हो चला है उन्हें याद करके, मगर ये जिंदगी उदास होने का भी समय नहीं देती है.. उदास हो जाऊंगा तो काम कौन करेगा?
श्री ममताजी,
ReplyDeleteआप की इस पोस्ट पर जाने से पहेले ही युनूसजीसे बात की तब, उन्होंनें बताया कि आज कल रेल यात्रा काफ़ी करनी हुई । तब यह पता नहीं था, पर फोन समाप्त करते हुए ही आपकी इस ताझा पर भावूक बातॉ से भरी हुई पोस्ट पढ़ी । मा तो मा ही होती है , पर जो आता है इसको कोई भी निमीत से कभी न कभी जाना ही है और इसी मानसीक आस्वासन ले कर हमें अपनी आगे की झिन्द्ग़ी अपने परिवार के जिये जीनी ही होती है । (शायद पोस्ट का समय मेरे लेपटॉप की घड़ी की गरबडी के कारण गलत दिख़ायें पर यह समय रात्री 11 बजे का है।)
पियुष महेता ।
नानपूरा, सुरत-395001.
ममताजी
ReplyDeleteभाईसाहब से फोन पर माताजी के बारे में जानकर बहुत दुख: हुआ। पिछली पोस्ट पढ़ कर आपके मन की हालत का अंदाजा हो रहा था, लेकिन इस पोस्ट ने हमें रुला दिया। आप नहीं मानेंगी जब मैं ये पंक्तियां टाइप कर रहा हूं तब मेरी आंखों में आंसू हैं।
मैं परमपिता से प्रार्थना करता हूं कि मांजी की आत्मा को शान्ति दे, और अपके पूरे परिवार को यह दुख: सहन करने की शक्ति!
गुजराती में मां के लिये दो कहावतें प्रसिद्ध हैं जो मैने पहले भी कई बार अलग अलग पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में लिखी है, यहां एक बार फिर लिख रहा हूं।
माँ! ज्यारे आँसू आवता हता ने तू याद आवती हती, आजे तू याद आवे छे ने आँसू आवे छे!
माँ ते माँ, ने बीजा वगड़ा ना वा!
आशा है आप दोनों कहावतों का भावार्थ समझ गई होंगी।
मां पर सुधांशु उपाध्याय की एक कविता यहां लिखने से अपने आप को नहीं रोक पा रहा हूँ।
ReplyDeleteअम्मा
थोड़ी थोड़ी सी धूप निकलती थोड़ी बदली छाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
शॉल सरक कर कांधों से उजले पावों तक आया है
यादों के आकाश का टुकड़ा फ़टी दरी पर छाया है
पहले उसको फ़ुर्सत कब थी छत के उपर आने की
उसकी पहली चिंता थी घर को जोड़ बनाने की
बहुत दिनों पर धूप का दर्पण देख रही परछाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
सिकुड़ी सिमटी उस लड़की को दुनियां की काली कथा मिली
पापा के हिस्से का कर्ज़ मिला सबके हिस्से की व्यथा मिली
बिखरे घर को जोड़ रही थी काल-चक्र को मोड़ रही थी
लालटेन सी जलती बुझती गहन अंधेरे तोड़ रही थी
सन्नाटे में गुंज रही वह धीमी शहनाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
दूर गांव से आई थी वह दादा कहते बच्ची है
चाचा कहते भाभी मेरी फ़ुलों से भी अच्छी है
दादी को वह हंसती-गाती अनगढ़-सी गुड़िया लगती थी
छोटा में था- मुझको तो वह आमों की बगिया लगती थी
जीवन की इस कड़ी धूप में अब भी वह अमराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
नींद नहीं थी लेकिन थोड़े छोटे छोटे सपने थे
हरे किनारे वाली साड़ी गोटे गोटे सपने थे
रात रात भर चिड़िया जगती पत्ता पत्ता सेती थी
कभी कभी आंचल का कोना आँखों पर धर लेती थी
धुंध और कोहरे में डुबी अम्मा एक तराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
हंसती थी तो घर में घी के दीए जलते थे
ReplyDeleteफ़ूल साथ में दामन उसका थामे चलते थे
धीरे-धीरे घने बाल वे जाते हुए लगे
दोनो आँखो के नीचे दो काले चाँद उगे
आज चलन से बाहर जैसे अम्मा आना पाई है!
पापा को दरवाजे तक वह छोड़ लौटती थी
आंखो में कुछ काले बादल जोड़ वह लौटती थी
गहराती उन रातों में वह जलती रहती थी
पूरे घर में किरन सरीखी चलती रहती थी
जीवन में जो नहीं मिला उन सब की मां भरपाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
बड़े भागते वह तीखे दिन वह धीमी शांत बहा करती थी
शायद उसके भीतर दुनिया कोई और रहा करती थी
खूब जतन से सींचा उसने फ़सल फ़सल को खेत खेत को
उसकी आंखे पढ़ लेती थी नदी-नदी को रेत रेत को
अम्मा कोई नाव डुबती बार बार उतराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!
Very Touching Indeed!
ReplyDeleteभावुक कर देने वाली पोस्ट.......दुनिया में माँ से बढ़कर कोई नहीं है ...
ReplyDeleteकुछ कहा पाने की स्थिति में नहीं हूँ... भावुक कर दिया आपने तो..
ReplyDeleteआपकी स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है. माँ की जगह कोई नहीं भर सकता. शास्त्रों में भी किसी और से पहले माँ के लिए "... देवो भवः" आता है.
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