Sunday, November 29, 2009

डायरी के कुछ पन्‍ने--'मां के जाने के बाद' ।


मां के अवसान को मन जैसे पूरी तरह स्‍वीकार नहीं कर पाया है । कंप्‍यूटर पर उनकी तस्‍वीर देखूं तो अचानक ही 'इनसे' कहने लगती हूं कि मां ऐसा कहती हैं, वो वैसा कहती हैं । 'हैं' से उनके अचानक 'थीं' हो जाने को कैसे स्‍वीकार करूं । इन दिनों जो डायरी लिखी, उसके पिछले दो अंकों में मैंने अपनी मां के बारे में कुछ-कुछ बताया । अब थोड़ा-सा और कुछ इस अंतिम कड़ी में......

जब कभी भाई-बहनों में खटपट हो जाती, और मां के सामने जब कभी ग़ुस्‍सा दिखाते या किसी बात पर खीझते तो वो हमेशा किसी उपन्‍यास, किसी कहानी या किसी पौराणिक-कथा का संदर्भ देतीं, यहां तक कि अप्रत्‍याशित रूप से किसी फिल्‍म के कथानक की मिसाल देकर समझातीं—‘प्रेमचंद का उपन्‍यास ‘निर्मला’ नहीं पढ़ा है क्‍या, वो बेचारी कितना कष्‍ट सहती है । लड़कियों को नम्र होना चाहिए । सिर झुकाकर दो बातें सुन लेनी चाहिए । क्‍योंकि पराए घर जाना है ।’ कभी उदाहरण देतीं—‘गोदान’ में गोबर और धनिया का चरित्र पढ़ा है । धनिया ने कितने दुख सहे, ग़रीबी झेली । दुख सहने से आदमी और महान बन जाता है, बड़ा हो जाता है । तो इस पर हम सब ये कहते कि घर में सब कुछ होते हुए भी आप हमेशा त्‍याग करती रहीं, आपको क्‍या मिला । इसलिए इंसान में अपनी बात कहने का साहस तो होना चाहिए ना । घर में नौकर-चाकर होते हुए भी सिर्फ रीति-रिवाजों के निर्वाह के लिए और बड़ों के सम्‍मान के लिए आप बिना खाए-पिए रसोई में खटती रहती थीं तो इसमें कौन-सा अच्‍छा किया आपने । तो फिर वो कहतीं, बात तो सही है, लेकिन इसी त्‍याग के कारण हमारी नानी के यहां, घर-परिवार में जो नाम मिला है, वो किसी और को मिला है क्‍या ।

धीरे-धीरे पता नहीं कब उनकी मान्‍यताएं बदल गयीं थीं । मैं कभी तकिये के गिलाफ़ में कशीदे या पेन्टिंग करना चाहती तो मना करतीं, कहतीं सिलाई-कढ़ाई मत करो, पढ़ाई करो । हमारी तरह जल्‍दी से चश्‍मा लग

—‘सरीर नाहीं साथ देहस, सुनार के हियां नाहीं जाय पाए, बच्‍चा के खातिर कुछ बनवाय नाहीं सके,हमरी ओर से काली मोती डलवाए के कुछ बनवाय दिहू’ ।

जाए तो क्‍या फायदा । जब मैं मुंबई में नौकरी करने आ गयी और एक बार तबियत ख़राब हो गयी, तो मुझसे कहती थीं—‘मेरी तरह मत करो कि सिर्फ दूसरों का ध्‍यान रखो । अपना भी ध्‍यान रखा करो ।’ बड़ा अफ़सोस हो रहा है कि मैं अंतिम समय में बहुत चाहकर भी उनके पास पहुंच ना
सकी । अभी इस वक्‍त लग रहा है कि वो थोड़े दिन इस दुनिया में और रहतीं, हम इलाहाबाद जाकर थोड़ा और रह लेते उनके साथ । वो मेरे बच्‍चे को अपनी गोद में थोड़ा और खिला लेतीं, जैसे अभी हाल ही में बीमारी की हालत में भी मुंबई आकर उन्‍होंने खिलाया था । और गोद में लेकर थोड़ी और बार ये गा देतीं—‘आवा हो झड़ुल्‍ले तेरी दादी आएगी, दादी कैसे आयेगी, गदहा चढ़ी आयेगी । लड्डू लिये आयेगी ।’ बेटे को गोद में लेकर और भी ना जाने क्या-क्‍या गातीं । जब बेटा दोनों हाथों को आपस में जोड़कर दबाता तो कहतीं—‘का हो, लड्डू बनावत अहा, केकरे खातिर लड्डू बनावत अहा ।’
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ऐसी तमाम बातें याद आ रही हैं, जो वो बेटे को गोद में लेकर कहतीं, गाती थीं । लगता है वो मेरे सामने बैठी हैं । और मैं अपने बेटे को उनकी गोद में दे रही हूं । लेकिन कड़वा मनहूस सच सामने आकर खड़ा हो जाता है कि अब मेरा बेटा अपनी नानी को नहीं देख पायेगा । जब मेरा बेटा पैदा हुआ था, तो मैं अकसर उसे गोद में लेकर खिलाती और कहती—‘थोड़े दिन में मेरा बेटा इलाहाबाद जायेगा, वहां पे बूढ़ी नानी मिलेंगी, बूढ़ी नानी की गोद में खेलेगा, शू-शू करेगा । मेरे बेटे की खीर-चटाई होगी । खीर-चटाई में बूढ़ी नानी छोटी-सी थाली, छोटा-सा गिलास, छोटी-सी कटोरी, छोटा-सा चम्‍मच देंगी । फिर मेरा बेटा उस छोटी-सी थाली में खाना खायेगा, छोटी-सी कटोरी में खीर खायेगा । मेरे बेटे की ये साध अधूरी रह गयी ।

वे बंबई आईं थीं मेरे बेटे को गोद में खिलाया, जी भर के देखा । बहुत बीमार थीं वो, छोटी-सी कटोरी, छोटा सा चम्‍मच तो नहीं ला सकीं । लेकिन बहुत सारी चांदी की सुपारियां दे गयीं थीं । और बड़े अफ़सोस के साथ उन्‍होंने कहा—‘सरीर नाहीं साथ देहस, सुनार के हियां नाहीं जाय पाए, बच्‍चा के खातिर कुछ बनवाय नाहीं सके,हमरी ओर से काली मोती डलवाए के कुछ बनवाय दिहू’ ।

ऐसा लगता है इन अंतिम दो सालों में शायद वो मेरे बच्‍चे को देखने के लिए ही संसार में बनी रहीं । जब मैं गर्भवती थी तो भी दो तीन दफा उनकी तबियत काफी खराब हुई थी । मैं उनसे कहती थी अपनी तबियत

——‘आवा हो झड़ुल्‍ले तेरी दादी आएगी, दादी कैसे आयेगी, गदहा चढ़ी आयेगी । लड्डू लिये आयेगी

संभालो, खुद को ठीक रखो
अभी । ताकि जब हम बच्‍चा लेकर आएं तो उसे अपनी गोद में खिला सको, आशीष दे सको । जवाब में वो कहतीं—‘हां कोशिश करत अही, बहुत ध्‍यान देइथ, तोहार बेटवा खिलाय लेब तबय जाब’ । ऐसा लगता है उन दिनों उन्‍हें अहसास हो गया था । और शायद मुंबई भी वो इसीलिए आईं थीं—मेरे बच्‍चे को गोद में खिलाने के लिए । हो सकता है कि वो मुंबई ना आतीं और मैं अपने नवजात शिशु को लेकर इलाहाबाद ना जा पाती, और वो उसे ना देख पातीं । तो मुझे जीवन भर के लिए अफ़सोस रह जाता । लेकिन तसल्‍ली है कि मेरा बेटा अपनी नानी की गोद में जी –भरके खेला । खूब सारे आर्शीवाद पाए ।

इस खबर के बाद जब इलाहाबाद जाना हुआ, तो जिस कमरे में जिस बिस्‍तर पर वो लेटती थीं, वहां बैठकर हम फफक-फफक कर रोए । लेकिन जैसे उस कमरे से बाहर आते, ऐसा लगता अभी वो उस कमरे से निकलेंगी और कुछ बोलेंगी । रात को हम सोते, तो लगता था कि मां सिरहाने आकर खड़ी हैं । हम लोगों को देख रही हैं । और शायद इसी अहसास में मैं जितने दिन वहां थीं, पूरी-पूरी रात जगती रही । घर में बीस-पच्‍चीस लोगों की उपस्थिति तो रही ही होगी, लेकिन लगता था घर में सन्नाटा छाया है । सब लोग बोलते रहते थे कुछ ना कुछ लेकिन लगता था कहीं कोई आवाज़ नहीं है । खूब चहल पहल रहती थी लेकिन लगता था कोई घर पर है ही नहीं । यहां तक कि घर से निकले, तो गली और सड़कें भी खाली और वीरान-वीरान लगीं । ऐसा लगा मानो शहर में अब कुछ बचा ही नहीं ।

तेरहवीं से पहले ‘शुद्ध’ की रस्‍म होती है । उस दिन पूजा की जाती है । कहते हैं इस दिन घर शुद्ध करके आत्‍मा की विदाई होती है । घर में ऐसी पहली पूजा थी, जिसमें मां नहीं थीं । और ये पूजा उन्‍हीं के लिए थी । मैं रो रही थी । हम सब रो रहे थे । मेरे असम वाले भैया मुझे समझाने लगे, अब बस करो, संभालो अपने आप को, अब आज से रोना नहीं चाहिए । आज उनकी विदाई हो गयी । ताकि उनकी आत्‍मा को शांति मिले । मेरे जीजाजी कहने लगे, हमेशा के लिए थोड़ी कोई आता है । अपनी उम्र जीकर गयीं ना । इतना रोओगी तो उनकी आत्‍मा को कष्‍ट पहुंचेगा । लेकिन मैं कैसे समझाऊं अपने-आप को । मुझे भी तो ये बातें पता हैं । अपने मन से कैसे करूं बिदाई । अपने मन को कैसे समझाऊं कि एक बार जो जाता है कभी वापस नहीं आता । अभी भी लगता है कि एक बार वे वापस आ जातीं और हम थोड़े दिन और सा‍थ जी लेते । अपने मन को कैसे समझाऊं कि मां का होना मेरे लिए कितना महत्‍वपूर्ण था । मेरे लिए सच्‍चे मन से दुआ करने वाली मेरी मां ही थीं । शायद उनके आशीषों से मैं कई बार कई मुसीबतों से उबर पाई ।


इस बार की यात्रा में बस एक दिन ऐसा था, जिस दिन थोड़ा हंसे-बोले । जब जादू के डॉक्‍टर मामा के साथ उनके घर पर जाना हुआ । इस वक्‍त उनसे मिलना भी मां की ही वजह से हुआ । क्‍योंकि मां ने सबको जोड़ने का ही काम किया । और तो और स्‍कूल के ज़माने की दो सहेलियां छाया और व्‍याहृति भी इसी मौक़े पर मिलीं । कोई संपर्क-सूत्र था नहीं इसलिए इलाहाबाद जाने पर उनसे मिलना नहीं होता था । लेकिन इस बार संयोग से एक सहेली का संपर्क-सूत्र मिला और उससे दूसरी का । दोनों सहेलियां मां को खूब प्रिय थीं । जाते-जाते भी मां उनसे फिर जोड़ गयीं ।


सागर भाई आपकी भेजी कविता मर्मस्‍पर्शी है । पढ़ते हुए आंसू आ गए । संदेशों के लिए सभी का आभार ।

13 comments:

  1. तीनों कडियों को आज ही पढा .. बहुत भावुक कर दिया आपने .. लगा कि मेरी मां की ही बातें लिख रही हैं आप .. मेरी मां भी अक्‍सर बीमार रहती है .. बी पी इतना बढ जाता है कि कई बार मौत के मुहं से निकल आयी हैं .. आपकी रचनाएं पढते पढते उनसे एक बार फिर से मिलने की मेरी इच्‍छा बलवती हो गयी है !!

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  2. मैं अधिक तन्मयता से नहीं पढ़ पाया। सरसरी तौर पर पढ़ कर छोड़ दिया। ज्यादा डूबता तो शायद रो पड़ता।

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  3. ममता जी
    माँ ...........और क्या कहें, इसके सिवा कहने को कुछ बचता ही नहीं है.
    बहुत ही सुन्दर!
    रत्नेश त्रिपाठी

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  4. शायद 'जादू' का ही इंतज़ार था उन्हें

    भावुक कर देने वाली एक और पोस्ट

    बी एस पाबला

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  5. जीवन्त वर्णण,और मर्मसप्रशी भी,बस यादें ही रह जाती हैं,मुझे भी अपने पिता जी के देहावसन के बाद अक्सर एसा लगता है,वोह यहीं,कहीं हैं ।

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  6. आँखें नम हो गयीं...कुछ भी कहना मुश्किल लग रहा है...बस यादें रह जाती हैं,लोगों के जाने के बाद...उन्हीं के सहारे जीना पड़ता है...आपके दिल से निकली बात सबके दिलों तक गयी...शत शत नमन माँ को..विनम्र स्रधांजलि

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  7. ममता जी, दो बार कोशिश की, लेकिन आपकी पोस्ट पूरी नहीं पढ पाया. हर बार कुछ पंक्तियां पढने के बाद आंखें नम होकर पढने से इंकार कर देती हैं.
    पूज्य माताजी को श्रद्धांजलि.

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  8. आपके लिखने में एक ईमानदारी है ..जो मन को कही भीतर तक भिगो देती है .बाकी सब हम यहां कह चुके है .....बिना आपकी इज़ाज़त के

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  9. माँ का जाना कभी नहीं भुला जा सकता है .मन को छु गया आपका लिखा

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  10. शायद सभी रोये होंगे, हिचकियाँ ले कर मेरी तरह...!

    माँ एक ऐसा शब्द जो एक अक्षर में मन को भिगो जाता है...!

    हर बार अपनी माँ सामने खड़ी दिखी...! मैने जब अपनी माँ के विषय मे एक पोस्त लगाई थी तो किसी ने लिखा था कि दुनिया की सारी माँएं एक सी होती है...! यही बात आपकी पोस्ट पढ़ कर मेरे मन में भी आ रही है....!

    अभी एक दिन एक खअलिस माँ बोल रही थीं...! "सिर्फ पैदा करते समय दर्द सहना पड़े तो कोई दर्द ही नही है। संतान को पैदा करने के बाद तो जिंदगी भर दर्द सहना होता है।" उन बिना पढ़ी लिखी महिला के मुँह से सुनकर लगा कि कितना बड़ा सच है ये....!

    मैने हर माँ को हमेशा रोते ही देखा है...! बच्चे खुश हैं तो खुशी के आँसू..! दुखी हैं तो उनसे ज्यादा माँ को दुःख...! ये जानमे कैसा रिश्ता है, जो अथाह भावनाओं का समूह है...!!

    आपकी प्रशंसा को शब्द देकर आपकी भावनाओं का मूल्य नही कम मरना चाहती...!

    माँ जहाँ रहेंगी.उनका आशीष मिलता ही रहेगा ....

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  11. Bahna man bahut dravit ho utha tumhari in posts se. telephone par to baat ho hi chuki hai, lekin post padkar tumhe aur mataji ko achchhe se jaan paya. maa hamesha amulya hoti hai. mataji ko vinamra shraddhanjali. aage kahane ke liye shabd nahi hai. tumhare dukh ko mahsoos kar raha hu.

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