Saturday, December 12, 2009

लसोढ़े के अचार, बेर का चूरन और कुल्‍हड़ों वाली शाम


इलाहाबाद गई थी तो प्रतापगढ़ वाले जीजा बोले--'ममता अचार तो नहीं चाहिए । कहो तो ला दें ।' अचार मेरी कमज़ोरी रहा है । जब 'प्रेग्‍नेन्‍ट' थी तो किसी ने वादा किया था कि आपके लिए 'लसोडे़' का अचार भेजेंगे । ये अचार ना आना था ना आया । बहरहाल.....कल के अख़बार में पढ़ा नज़दीकी 'खादी-ग्रामोद्योग-संस्‍थान' के मैदान में एक राष्‍ट्रीय-हैंडलूम-प्रदर्शनी लगी है । सो हम जादू और उसके पापा को लेकर जा पहुंचे । 

ऐसी जगहों पर सबसे पहले नज़र पड़ती है रेशमी साडियों पर । मन ललच गया--'हाय ये लूं, नहीं नहीं ये ठीक रहेगी । अच्‍छा वो वाली तो बहुत ही बढिया है' । सरगुजा का 'कोसा-सिल्‍क' । बंगाल की रेशमी साडियां ।

——‘लसोढ़ा का अचार अहै, अंवरा क मुरब्‍बा अहै, अंवरा का लड्डूउ, अ जामुन क सिरका, ई चटपट गोलीई, हई देखा मिक्‍सौ अचार अहै' । देखा आमौ का अचार, कटहर, करौंदा, लसोढ़ा कुलि बा । केतना अचार चाही तोहका

उड़ीसा, महेश्‍वर, दक्षिण-भारत.... सभी जगहों की साडियां और सूट के कपड़े । साडियां पहनती कभी-कभार ही हूं पर ख़रीदकर सहेजने का शौक़ बहुत है । वॉर्डरोब खोलूं तो साडियों को छूकर देखने, देखकर निहाल होने और अपने ऊपर लगाकर आईने के सामने निहारते हुए मैं घंटों बिता सकती हूं । मुझे लगता है कि इसका अपना अलग ही मज़ा है । तो सबसे पहले लगा कि फ़ौरन दो साडियां तो ख़रीद ही ली जाएं । पतिदेव का चेहरा देखने लायक़ था कि आज तो डाका लगा जेब पर । कहने लगे कि 'जादू' के आने के बाद कभी साड़ी पहनने की कोशिश भी
की । यूं तो 'इनकी' ऐसी समझाईशें आसानी ने मेरे ऊपर असर नहीं करतीं, लेकिन इस बार लगा, बात तो सही है । रहने दिया जाए क्‍या । चलो 'सूट' ही ख़रीदे जाएं । साथ में जीन्‍स के साथ पहने के लिए कुछ टॉप भी ।

ख़ास बात ये कि जब सूट के कपड़े देखे तो आंखें खुली रह गयीं । सुंदर रंग, मनमोहक कशीदाकारी...बढिया था सब कुछ । और दाम मुंबई के हिसाब से काफी कम । कपड़े अपने डिज़ायन में अनूठे भी थे । इस प्रदर्शनी में ख़ास बात ये कि जैसे ही फ़ुरसत होकर आगे बढ़े तो एक स्‍टॉल पर बोर्ड लगा था-
'पुष्‍पांजली प्रतापगढ़' । 'अरे ये तो वही जीजा वाला अचार है, जिसे मैं परांठों के साथ चटख़ारे लेकर खाती हूं और जो ख़त्‍म होने लगा है...और मैं कई दिनों से सोच रही थी कि कोई इलाहाबाद से आने वाला हो...तो मंगवा लिया जाए' ।  मैंने तो ख़ुशी के मारे स्‍टॉल पर मौजूद व्‍यक्ति से सवालों की झड़ी लगा दी । 'क भैया प्रतापगढ़ के कउनी जगह से आय अहा', 'लसोढ़ा क अचार बाटै' । फिर क्‍या था अचार वाले भैया तो प्रसन्‍न मुद्रा में, चश्‍मे को ऊपर उठाते हुए गदगद होकर कहने लगे--'अरे बिट्टी ! याह देखा । लसोढ़ा का अचार अहै, अंवरा क मुरब्‍बा अहै, अंवरा का लड्डूउ, अ जामुन क सिरका, ई चटपट गोलीई, हई देखा मिक्‍सौ अचार अहै' । देखा आमौ का अचार, कटहर, करौंदा, लसोढ़ा कुलि बा । केतना अचार चाही तोहका । ल हई अमवा का अचरवा चीख ल ।' भई हम तो हो कन्‍फ्यूज़ । कौन सा अचार लें, कौन सा छोड़ें' । छुट्टी पर चल रहे हैं तो क्‍या हुआ, गले का ध्‍यान तो रखना ही पड़ता है ना ।

अचार, आंवले के लड्डू सब ख़रीदे । और मुदित मन से आगे बढ़े तो एक  जगह नागपुर के स्‍टॉल पर अनुरोध किया गया--'बेर का चूरन चखिए मैडम' । 'बेर का चूरन' । मन जैसे छलांग मारकर बचपन की गलियों में पहुंच गया । दस पैसे का बेर का चूरन । खरदरा पिसा हुआ । आह, वाह, हाय हाय । चटख़ारे लेकर चख ही रहे थे कि तभी सूचना दी गयी कि आपके बचपन वाले 'गीले बेर' ( उबाले हुए ) भी हैं और बेर का शरबत
भी । अब ये पैकेटबंद बिकते हैं । फिर इनके स्‍वास्‍थ्‍यकर होने पर आख्‍चान भी दिया गया । बस समझिए कि परम-आनंद आया । आगे बढ़े तो उदयपुर के स्‍टॉल पर अनारदाने का चूरन, जीरा-गोली, चटपट गोली, मेथीदाने की गोली, हिंगाष्‍टक गोली जाने क्‍या-क्‍या था । ये चखिए, वो चखिए । अरे ये भी लीजिए वो भी लीजिए । सारी महिलाएं चटख़ारे ले रही हैं । यहां से कुछ पैकैट ले लिए गए ।

आगे बढ़े दिखे तो बैंगलोर से आए लकड़ी के खिलौने । लकड़ी का 'किचन-सेट' । लकड़ी की मोटर कार । लकड़ी के लट्टी । लकड़ी का झुनझुना ।
सीटी । अगरबत्‍ती स्‍टैन्‍ड । कलमदान । नन्‍हीं टेबल कुरसी । सब कुछ लकड़ी ही लकड़ी । यहां की ख़रीददारी
जादू ने की । और मज़ा मुझे 'जादू' से ज्‍यादा आया । ( जादू के डॉक्‍टर मामा ने अपने बचपन के लकड़ी के खिलौनों की तस्वीर भेजकर कुछ दिन पहले हमें अपने बचपन में पहुंचा दिया था ) सामने ही मिट्टी के कुल्‍हड़नुमा प्‍यालियां, मग और ट्रे नज़र आए । सब कुछ छोड़कर मैं उधर चल पड़ी । चीनी मिट्टी के ये बर्तन वाक़ई शानदार थे । वैसे मेरे पास इसी तरह की प्रदर्शनी के ख़रीदे गए चीनी-मिट्टी के कुल्‍हड़ हैं जिनमें चाय पीने का अपना ही मज़ा है । कल इनकी तादाद में इज़ाफ़ा हो गया ।

मुख्‍य-द्वारा पर गांधीजी की 'चरख़ा कातते हुए' एक प्रतिमा लगाई गई
है । पहले पता होता तो कैमेरा लेकर जाते और जादू की तस्‍वीर बापू के साथ खींच ली जाती । अब रविवार को फिर जाना तय है । फिर वही लसोड़े का अचार, वही चटपट, वही चूरन, वही बचपन ।

15 comments:

  1. ाज कल तो असली गोल गोल बेर जो बचपन मे खाया करते थी ,जो झाडिओं मे लगा करते थे वो मिलते ही नहीं हैं और लसोडे का पेड अपने घर मे होता था। पके हुये लसोडे खाया करते थे। खूब याद दिलाया । मस्त पोस्ट धन्यवाद्

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  2. इन प्रदर्शनियों में जाने से अपना पुरानापन याद आ जाता है। लगता है जैसे हम सपने खरीद रहे हों।

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  3. ममताजी
    सुन्दर बाते, अच्छी बाते
    आभार~!

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  4. पापा ने पूरे मेले में एक भी फरमाइश नहीं रखी.......बड़े शरीफ पापा है ....

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  5. क्या ममता जी...आपकी पोस्ट पढ़कर समझ में आ रहा है,मैंने क्या मिस कर दिया...एक सहेली ने फ़ोन किया कि चलना है,एक्जीबिशन ?...और मैंने नकार दिया क्यूंकि मैं एक पोस्ट लिख रही थी...सोचा पूरी कर लूँ,पहले...अब पेपर देखने जा रही हूँ,..(इश्वर करे यह प्रदर्शनी,अब तक चल रही हो)....साड़ी और सूट के मोह पर तो काबू पा भी लूँ...पर आपके अचार और चूरन वर्णन ने तो मुहँ में पानी ला दिया.
    ( BTW बहुत मिस किया आपको मुंबई ब्लौगेर्स मीट में )

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  6. फिलहाल तो मेरे यहां मिर्ची का भरवां अचार गांव से आया हुआ है। मैं उसी का आनंद ले रहा हूँ।
    इलाहाबाद के कुंभ मेले के दौरान उत्सुकतावश बांस का अचार लिया था यह देखने के लिये कि देखें यह कैसा होता है। लेने के बाद उतना जमा नहीं। खैर, आपके इस पोस्ट से तो मेरी इलाहाबाद कुंभ यात्रा याद आ गई है। वहां भी इसी तरह के स्टॉल लगे थे।

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  7. आजकल ये मेले भारतवर्ष में हर जगह लगने लगे हेँ... आपने अच्छा वर्णन किया है

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  8. बस एक सवाल, जादू के पापा पर रेडिओवाणी का लिंक लगा है.. मगर जादू पर क्यों नहीं? :)

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  9. प्रशांत जादू के नाम पर लिंक लगा तो है । लगता है तुमने ध्‍यान से नहीं पढ़ा । सेकेन्‍ड-लास्‍ट पैरा देखो ।

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  10. रश्मि जी ये प्रदर्शनी दस जनवरी तक है कोरा केंद्र मैदान नंबर 2 पर । इसलिए एक बार नहीं बार बार जाया जा सकता है ।

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  11. Oh.. main to 1st Paragraph me hi dhyan diya tha.. niche to bas aapki lekhni me bahte huye padhta chala gaya tha.. :)

    Jadoo ko dher sara pyar de dijiyega, aur Yunus bhaiya ko mera regards bhi de dijiyega.. bahut dino se baat nahi hui hai unse.. :)

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  12. हमारे घर में भी विविध सामान आया है। पर हमारे काम का कुछ नहीं! :-(

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  13. करौंदा, लसोढ़ा का तो नाम सुने ही बरसें बीत गयी. देखने की तो बात ही क्या कहें?

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  14. क्या क्या नहीं याद दिला दिया आपने!
    बेर के चूर्ण तो हम खुद हाथों से बनाया करते थे। एक बार फिर बचपन याद आ गया।
    आपको सारे आचार मुबारक हो।

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  15. Kahaan Lagi Hai Ye Paradarshni Mamta Ji...Zara Pata To Dijiye..Man Lalcha Gaya Aur Ab Hum Wapas Mumbai mein Hain...To Shayad Gharwalo Ko Le Kar Chale Hi jaayein ek do din mein...

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