Sunday, August 31, 2008

'मोहे पिछवरवा चंदन गाछ' और गांव की विकल याद--बतकही की पहली पोस्‍ट


एक दिन मैंने अपने पति महोदय से मीठी-सी शिकायत कर दी, ब्‍लॉग पर सबके लिए जाने कहां-कहां से ढूंढ-ढांढकर दुर्लभ गीत और भजन वग़ैरह-वग़ैरह पेश करते रहते हो, लेकिन मेरे लिए कुछ लोक-रचनाएं और कृष्‍ण भजन संकलित नहीं कर सकते । कहकर मैं तो भूल गई ।


कई दिन बीते, अचानक एक दिन पति महोदय ने मुझे सुबह-सुबह जगाया । मैंने सोचा आज ये उल्‍टी धारा........'ये' पहले उठ गए । याद करने की कोशिश की, मेरा जन्‍मदिन या शादी की सालगिरह तो नहीं.............क्‍योंकि आमतौर पर ये उल्‍टी धारा इन्‍हीं ख़ास दिनों में बहती है । अचानक म्‍यूजिक-सिस्‍टम पर 'यारो सुनो' भजन की मिठास पूरे घर में घुलने-मिलने लगी । घर का पूरा माहौल कृष्‍ण भजन के रस से भावविभोर होने लगा । मैं मुदित हुई जा रही थी । एक के बाद एक कृष्‍ण-भजन बज रहे थे और मैं भाव-विव्‍हल ।


एक भजन ने तो मुझे बचपन के संसार में ही लौटा दिया । 'मोरे पिछवरवा चंदन गाछ' । इस सोहर ने मुझे बार-बार ये अहसास दिलाया कि रॉक-एन-रोल, सिंह-इज़-किंग, दर्दे-डिस्‍को के इस तेज़ दौर में भी असल में हमारे प्राण लोक-रचनाओं में ही बसते हैं । सिंह इज़ किंग सुनते हुए आंखों के सामने कोई दृश्‍य क्‍यों नहीं कौंधता । 'मोरे पिछवरवा' सुनते हुए आंखों के सामने बचपन का वो
बच्चे के जन्म पर गाये जाने वाले 'सोहर' ने आज जाने कौन कौन से रूप धर लिये हैं । गांव-कस्बों में आज भी बच्चे के जन्म पर देवी-गीत जैसे--'द्वारे तिहारे भई भीर हो जगदंबा मईया' या फिर 'जनम लियो ललना' या फिर 'छोटी ननदिया हठीली कंगना मारे रे' या फिर 'धीरे धीरे पियवा जो आये त हम जानी हंसउआ करि गए' ।
गांव कौंध गया, जहां सिर्फ दो साल बिताए । लेकिन यादें इतनी ढेर सारी कि लिखने चलें तो लेखनी भी चुकने लगे । 'मोरे पिछवरवा' सुनते हुए मुझे बचपन की वो 'बढ़ईन काकी' याद आ गयीं । जो रहती थीं चार-पांच घर पीछे.........। यूं तो ज़मींदारी के उस दौर में जात-पात का बड़ा भेद-भाव था । बढ़ईन काकी, ठाकुरों-ब्राम्‍हणों के बराबर नहीं बैठती थीं । ल‍ेकिन हमारे घर में बड़े अधिकार से वो 'काकी' की तरह की आती-जाती थीं । और अधिकार से हम लोगों को डांटती फटकारतीं । आग्रह करने पर गीत-गवनई की ऐसी तान छेड़तीं कि बस आप सुनते ही रहें । 'बन्‍ना-बन्‍नी' हो, विवाह-गीत हो, देवी-गीत हो, सोहर, बिरहा या कोई भी लोकगीत.......बढ़ईन काकी के सुर के बिना अधूरा ही रहता । किसी के घर बच्‍चा हुआ हो, कोई उत्‍सव हो, तीज-त्‍यौहार हो......लगभग साठ साल की बढ़ईन काकी ज़रूर पहुंचतीं और सबसे पहले पहुंचतीं । और उनके पहुंचते ही 'गाने-बजाने' में चार चांद लग जाते ।


उनके कुछ मशहूर गाने भी बताती चलूं ।
'अरे गोहुं-आ......अरे गोहुं-आ, सुखवने डारीऊं हो' ।
'अमवा के तरे डोला रखि दे कहरवा हो, देखि लेंईं गंउआं की ओर'
'मोरे पिछवरवा लवंगिया के पेड़वा हो, लवंग चुवई आधी रात'
'देहूना मोरी माई फूल की डलरिया हो, फुलवा चुवई आधी रात हो'
'बहिनी पिपरी के लंबे-लंबे पात, दुआरे बायों पीपरिया'


ये तमाम गीत बढ़ईन काकी के सुर में खूब सजते थे और हम भी चाव से उन्‍हें दोहराते । जो लोग उत्‍तरप्रदेश से ताल्‍लुक रखते हैं , ये रचनाएं उन्‍होंने जरूर सुनी होंगी । इसी तरह की महिलाओं में और कई नाम हैं । जैसे मेरी भाभी की बहन सुधा गाने में खूब माहिर थीं । मेरी मां तो आज भी कुछ लोक रचनाएं गाने लगती हैं, तो हम भाई-बहनों की आंखें नम हो जाती हैं । 'अमवा के तरे डोला रखि दे कहरवा हो' इस ग्रामीण लोक-रचना की तर्ज पर एक लोकगीत प्रचलित हुआ । इसमें थोड़ा फेरबदल करके सुधा मल्‍होत्रा ने गाया था । बोल थे--निबुआ तले डोला रख दे मुसाफिर' । किसी दिन मौक़ा लगा तो 'बतकही' पर आपको ये गीत भी सुनवाया जायेगा । लेकिन जो रस गांव की दादी-नानी और काकी के स्‍वर में इस रचना में मिलेगा, वो किसी एल.पी. रिकॉर्ड या सी.डी. में कहां है ।
बानगी के तौर पर-----'बपई तो देहेन मोहे अंधन सोनवा हो, माई त दिहिन मोहे लहंगा बटोर, भईया त दिहिन मोहे अरबी घोड़वा, भउजी के रहि गए जहर के बोल'

















बहरहाल बात की शुरूआत हुई थी,छन्‍नूलाल मिश्रा के गाये इस सोहर से---'मोरे पिछवरवा चंदन गाछ' । छन्‍नू लाल मिश्रा ने अपनी खरजदार आवाज़ में खटका -मुरकी के साथ जो गाया है वो बेमिसाल है । इस लोक-रचना में भी पूरी की पूरी कथा समाई है कि श्रीकृष्‍ण पैदा होते हैं और छह दिन में ही मुरली की तान छेड़ने लगते हैं । इस छोटी सी घटना को कितने सुंदर ढंग से समेटा गया है इस सोहर में ।







मोरे पिछवरवा चंदन गाछ, अवरो से चंदन हो
रामा सुखद बढ़ईया मारे छेड़एं ललन जी के पालन हो
रामा सुखद कन्हैया जी के पालन हो
रामा के गढ़ऊं खड़उवां हो रामा
ठाड़ी जसोदा झुलावैं,
ललन जी के पालन हो रामा ।।
झूलहू ऐ लाल झूलहू
अवरो से झूलहू ओ रामा
जमुना से जल भर लाईं
फिर झुलवा झुलाइब हो रामा ।।
जमुना पहुंचहूं ना पउलीं
घड़इलवा न भरलीं हो रामा
पिछवां उलट जो मैं चितवउं
महल मुरली बाजै हो रामा
पिछवां उलट जो मैं देखूं
महल मुरली बाजै हो रामा ।।
रान पड़ोसिन मैया मोरी
अउरो बहिन मोरी हो रामा,
बहिनी छवैये दिन के भइले
त स्याम मुरली बाजे
बहिनी छवैये दिन के भइले
मुरलिया दियो बजाइ ।।
चुप रहो जसोमति चुप रहो
दुस्मन जनैं सुनै हो रामा
जसुमति इहै त कंस के मरैहै
अरे गोकुला बसैहैं हो ।।
मुरली छवैर म चंदन गाछ हो
अउरो से चंदन हो रामा ।।
सुखद बढ़ईया मारै छैवेड़
चंदन जी के पालन हो ।।
पालन हो पालन हो ।।
बच्‍चे के जन्‍म पर गाये जाने वाले 'सोहर' ने आज जाने कौन कौन से रूप धर लिये हैं । गांव-कस्‍बों में आज भी बच्‍चे के जन्‍म पर देवी-गीत जैसे--'द्वारे तिहारे भई भीर हो जगदंबा मईया' या फिर 'जनम लियो ललना' या फिर 'छोटी ननदिया हठीली कंगना मारे रे' या फिर 'धीरे धीरे पियवा जो आये त हम जानी हंसउआ करि गए' । हां तो '‍बतकही' में बात छन्‍नू लाल मिश्रा के गाए उस सोहर की चल रही थी......इसे पंडित जी ने बड़े ही पेशेवर अंदाज़ में गाया है जिसमें थोड़ी शास्‍त्रीयता है, शास्‍त्रीय गायकी की बारीकियां भी हैं लेकिन जो बात सबसे ज्‍यादा सुहाती है वो ये कि इसमें एक गंवईंपन है । ये गंवईपन हमें अपनी संस्‍कृति से जोड़ता है । अम्‍मा बाबा के संस्‍कारों से जोड़ता है । रिश्‍तों की याद दिलाता है । सोहर के इस गंवईंपन से हमें ना जाने कितने कितने सोहर याद आ गए, ना जाने कितने 'बन्‍ना-बन्‍नी' याद आ गये, ब्‍याह और कजरी याद आ गये । सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण बात ये कि गांव की चौपाल, दादी-नानी, पड़ोसिन काकी की सारी बातें याद आ गयीं । गांव के मिट्टी के बर्तन (मेटी) में रखे अचार याद आ गये, जिसे गर्भवती महिलाएं खूब चटखारे लेकर चाटती हुई आंगन में नज़र आती थीं । और इन सब बातों का जिक्र उन सोहरों में होता था जो काकियां-नानियां-दीदियां और सखियां गाया करती थीं ।


मेरी इस 'बतकही' से आपको क्‍या याद आया ।

Tuesday, August 26, 2008

हैलो हैलो टेस्टिंग टेस्टिंग


मैं हूं आपकी रेडियो-सखी ममता सिंह ।
और जल्‍द आ रही हूं अपना चिट्ठा -'बतकही' लेकर ।
ये एक टेस्टिंग पोस्‍ट है ।
तो आते रहिएगा 'ब‍तकही' के लिए ।