ठंडा मतलब..............

‘वह तोड़ती पत्थर, मैंने उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर’.....
अब इसमें भी झुलसती गरमी ही तो है। बहरहाल हम जो कहना चाहते हैं, वो ये कि गरमी है तो बुरी, लेकिन इस मौसम की ख़ासियत बड़ी अनोखी है.. बड़ी सुहानी यादें हैं....जैसे-जैसे पलाश सुर्ख़ लाल होता, बाग़ों में कोयल कूकती, आम बौराते, घर के आंगन में सिल-बट्टे पर कच्चे आम की चटनी पीसी जाती…….परीक्षाओं का बुख़ार तेज़ होता जाता.....बदहवासी बढ़ती जाती.....लू के थपेड़े बढ़ते जाते। गरमी की उन लंबी बोझिल दोपहरियों में जब सारा घर सो रहा होता, तो हम झूम-झूमकर ऊंघते हुए पाठ याद कर रहे होते.....। तब ठंडक बिखरने वाले ए.सी. विरले घरों में होते। होते थे तो कूलर। उसमें भी बारी लगती कि कूलर के सामने की ‘बेस्ट सीट’ किसे और कितनी देर मिलेगी। इस बात पर सब कुनमुनाते थे कि आज कूलर में पानी भरने की बारी किसकी हो। तब मटके और सुराही का पानी तरावट देता था। तब उपभोक्तावाद ने अपने पैर नहीं पसारे थे। तब ठंडा मतलब एक ख़ास ‘साफ्ट ड्रिंक’ नहीं, बल्कि मां के हाथ का बेल का शर्बत या जलज़ीरा या फिर ठंडई हुआ करता था, जिसे पीते ठंडक का ‘करंट’-सा दौड़ा करता था। कुल्फ़ी और ‘रीटा आइसक्रीम’ वाले की बांग सुनकर भाई-बहन अपनी-अपनी गुल्लक से पैसे निकाल दौड़ पड़ते थे ख़रीदने।
सबसे प्रिय याद है गन्ने का रस। तब गन्ने का रस निकालने के लिए आज जैसी मशीन नहीं थी। ‘चड़क-चूं, चड़क चूं’ जैसी आवाज़ करती लकड़ी से बनी चरखी होती थी, जिसमें गन्ने का समूचा लट्ठा ठूंसा जाता था और उस पर बंधा घुंघरू ‘छुनमुन छुनमुन’ करता रहता रहता। तब जिंदगी में लय थी और ताल था....मुश्किलें थीं लेकिन तब जिंदगी बहुत आसान थी। आज की तरह शॉर्ट-कट वाले रास्ते नहीं थे। भागमभाग नहीं थी। तसल्ली थी, सुकून था। यूनिवर्सिटी जाते हुए रिक्शे के कई स्टॉपों में पहला स्टॉप होता था गन्ने का रस। जहां पर इत्मीनान से रिक्शा रूकता और गन्ने का रस निकालने वाले भैया ग्लास थमा देते और हम अपनी बहन या सहेलियों के साथ आराम से बैठकर रस पीते। वो आनंद आज के फाइव-स्टार होटलों में कहां। और हां...गन्ने के रस में अलग से बर्फ़ का टुकड़ा, पुदीने और लाल मिर्चे वाला नमक डालने पर उसका स्वाद कई गुना बढ़ जाता था। महानगरीय सभ्यता में जैसे ये एक सपना ही रह गया है। अब तो हम बैक्टीरिया और जीवाणु कॉन्शस हो गए हैं। तब इन सबके बारे में ना तो जानकारी थी, ना परवाह।
इलाहाबाद के लोकनाथ चौराहे पर लगे चाट के ठेले के सामने खड़े होकर मस्त पानीपुरी और टिकिया भर पेट खाते, घर जाकर दोनों बहनें कहतीं—‘आज भूख नहीं है, खाना नहीं खायेंगे’। भाभी तुरंत कहतीं—‘लगता है आज तुम लोगों का रिक्शा लोकनाथ की ओर से आया है’। इसी तरह तपती-झुलसती गरमी में जब हम रिक्शा खोजते हुए गली-से बाहर आते, तो सामना होता लाल कपड़े में लिपटे मटके के जलज़ीरे और छोटी-छोटी दुकानों से आती विविध-भारती की सुरीली टेर से। रूककर हम फ़रमाईशी नाम सुनते थे। झुमरी-तलैया से फलाने, बरकाकाना से फलाने। उन दिनों की उद्घोषिका कांता गुप्ता की आवाज़ सुनकर हमारे पांव ठिठक जाते। कई बार उनकी अगली उद्घोषणा सुनने के लिए वहीं खड़े होकर पूरा गाना भी सुन डालते। कुछ ख़ास किस्म की उनकी बोलने की शैली थी, जो बड़ी लुभाती थी। एक गन्ने के रस और जलज़ीरा पीने के बहाने हम जीवन और शहर के कितने रंग और रूप देखते थे।
सोचती हूं.... गन्ने की मेरी यादों के पिटारे में मां के हाथ का बनाया बेल का शरबत, गन्ने का रस और सत्तू है, अचार है, ठंडाई है, पना है, चटनी है, खाने-पीने का एक अनोखा सतरंगी ख़ज़ाना है। बड़े होने पर मेरे जादू और उसके दोस्तों की यादों में क्या होगा.....गन्ने का रस क्या बेदख़ल हुआ, एक साथ हमारी जिंदगी से कितना कुछ चला गया।
बड़ा नीक लिखलू ह दिदिया ... हम तोहरा के हमेशा सुनिले अइसहीं लिखत रहा :)
ReplyDeleteBeautiful narration..
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